झारखंड के गांवों में जीवित है सदियों पुरानी परंपरा, आदर्श किसान की पहचान के लिए करना होता ये काम

झारखंड के गांवां में सदियों पुरानी परंपरा आज भी जीवित है। घर के चाला के नीचे यदि पाइरा टोंग नहीं लगाया तो आपको आदर्श किसान का दर्जा नहीं मिल सकता।

By Edited By: Publish:Thu, 04 Jul 2019 08:50 AM (IST) Updated:Thu, 04 Jul 2019 11:27 AM (IST)
झारखंड के गांवों में जीवित है सदियों पुरानी परंपरा, आदर्श किसान की पहचान के लिए करना होता ये काम
झारखंड के गांवों में जीवित है सदियों पुरानी परंपरा, आदर्श किसान की पहचान के लिए करना होता ये काम

जमशेदपुर, विश्वजीत भट्ट। मिट्टी का घर। चार चाला (छज्जा) वाला। घर में मुर्गा, बकरी, बत्तख, गाय-बैल और कबूतर नहीं तो आप किसान नहीं। घर में मुर्गा, बकरी, बत्तख, गाय-बैल तो सब पाल लेते हैं, लेकिन घर के चाला के नीचे यदि 'पाइरा टोंग' नहीं लगाया तो आपको आदर्श किसान का दर्जा नहीं मिल सकता। उस पर भी गजब ये कि घर का मालिक यदि किसी भी अपने पालतू जानवर को मार-पीट दे, गांव का सबसे 'हेय' वही।

झारखंड ने अभी भी अपनी सदियों पुरानी इस परंपरा को जीवित रखा है। झारखंड की यह सदियों पुरानी परंपरा है कि गांव में यदि किसी का घर खपरैल का है तो उसके चारों और 'चाला' होना चाहिए। इस चाला के नीचे कबूतरों को रहने के लिए, दाना-पानी देने के लिए पाइरा टोंग लगाना भी अनिवार्य है। ये पाइरा टोंग रस्सी के सहारे चाला के नीचे बड़े-बड़े घड़े या हांडी टांग कर बनाया जाता है। घर के चाला के नीचे लगे पाइरा टोंग में यदि कबूतर अपने आप आकर बसे गए तो वह घर 'कंपलीट' कहलाएगा। एक किसान परिवार आदर्श किसान और 'भद्रजन' कहलाने के लिए घर के चाला के नीचे पाइरा टोंग लगाकर कबूतरों को पालता है और गांव में आदर्श किसान व भद्रजन कहलाने का गौरव पाकर आज भी फूले नहीं समाता है।

मालिक की होती जिम्मेवारी

झारखंड की संस्कृति के मूल में यह परंपरा शामिल है। घर के मालिक की यह जिम्मेदारी होती है कि वह इस नायाब परंपरा का पालन अनिवार्य रूप से करे। साथ ही ऐसे पशु-पक्षियों के साथ किसी तरह की ¨हसा बिल्कुल न करे। परिवार के सदस्य की तरह इन पशु-पक्षियों का भरण-पोषण और लालन-पालन करे। यदि इसमें कोई कमी रह जाती है तो गांव के लोग उस परिवार के मुखिया को बहुत हेय दृष्टि से देखते हैं। जिला मुख्यालय सरायकेला-खरसावां से लगभग 80 किमी, चांडिल प्रखंड मुख्यालय से 40 किमी और चौका थाने से 20 किमी दूर स्थित कदलाकोचा गांव के हर घर में यह परंपरा अपने पूर्ण रूप-स्वरूप में जीवंत है। 

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