फिल्म रिव्यू: बेतुकी कोशिश 'वाह ताज' (1 स्‍टार)

सही मुद्दे पर व्यंग्यात्मक फिल्म बनाने की कोशिश में लेखक-निर्देशक असफल रह जाते हैं। दृश्यों से संयोजन और चित्रण में बारीकी नहीं है। यूं लगता है कि सीमित बजट में सब कुछ समेटने की जल्दबाजी है।

By Pratibha Kumari Edited By: Publish:Thu, 22 Sep 2016 07:16 PM (IST) Updated:Thu, 22 Sep 2016 07:38 PM (IST)
फिल्म रिव्यू: बेतुकी कोशिश 'वाह ताज' (1 स्‍टार)

अजय ब्रह्मात्मज

प्रमुख कलाकार- श्रेयस तलपड़े, मंजरी फडनिस
निर्देशक- अजित सिन्हा
स्टार- एक

अजीत सिन्हा की 'वाह ताज' विशेष आर्थिक क्षेत्र और किसानों की समस्या को लेकर बनाई गई फिल्म है। उन्होंने आगरा के ताजमहल को केंद्र में लेकर कथा बुनी है। उद्योगपति विरानी अपने पिता के सपनों को पूरा करने के लिए किसानों को उनकी उपजाऊ ज़मीन से बेदखल कर देता है। गांव के किसानों का नेता तुपकारी विरोध करता है तो वह एक राजनीतिक पार्टी के नेता और गुंडों की मदद से उसकी हत्या करवा देता है। यह बात विदेश में पढाई कर रहे उसके छोटे भाई विवेक को पता चलती है तो वह गांव लौटता है। उसके साथ उसकी गर्लफ्रेंड रिया भी आ जाती है। दोनों मिलकर एक युक्ति सोचते हैं। 'वह ताज' इसी युक्ति की फिल्म है।

इस युक्ति के तहत दोनों होशियारी से कागजात जमा करते हैं और ताजमहल पर दावा ठोक देते हैं। वे महाराष्ट्र के तुकाराम और सुनंदा बन जाते हैं। अपने साथ एक लड़की को बेटी बना कर ले आते हैं। विवेक का दावा है कि उसके दादा के परदादा के परदादा की यह ज़मीन है। मुग़ल बादशाह शाहजहांं ने उसे हथिया लिया था। मामला कोर्ट में पहुंचता है। वहां विवेक के जमा किए कागजातों को गलत साबित करना संभव नहीं होता। ताजमहल के दर्शन पर स्टे आ जाता है। यह बड़ी ख़बर बन जाती है। फिर सेंटर और स्टेट की राजनीति आरम्भ होती है। स्टेट में विरोधी पार्टी पहले से सक्रिय है। उसके नेता विवेक की मदद कर रहे हैं। मुश्किल में फंसती सरकार विवेक उर्फ़ तुकाराम को देश में कहीं भी ज़मीन देने का वादा कर बैठती है।

वाह ताज

सुनंदा भारत के नक़्शे पर कुछ जगहों पर छड़ी रखती है तो वो क़ुतुब मीनार और संसद निकलते हैं। दोनों के लिए मना होने के बाद वे अपने गांव के खेत चुनते हैं। यहां फिर से उनकी भिडंत विरानी और उसके गुर्गों से होती है।निर्देशक अजीत सिन्हा की बेतुकी कोशिश एक प्रहसन बन कर रह जाती है। फिल्म के कुछ दृश्यों और प्रसंगों में हंसी आती है, लेकिन पूरी फिल्म से जुड़े रहने के लिए वे नाकाफी हैं। श्रेयश तलपडे औंर मंजरी फडनीस की मेहनत भी काम नहीं आती। एक सीमा के बाद वे भी हंसा नहीं पाते। हांं, श्रेयश मराठी लहजे और उच्चारण से प्रभावित करते हैं, लेकिन उनका किरदार एकांगी रह जाता है। सहयोगी कलाकारों में विसर्जन यादव की भूमिका में हेमंत पाण्डेय देसी बोली और लहजा ठेठ और सही तरीके से ले आते हैं। उस बोली को नहीं समझने वाले दर्शकों को थोड़ी दिक्कत हो सकती है। लम्बे समय के बाद पर्दे पर आए हेमंत किरदार की सीमाओं के बावजूद प्रभावित करते हैं। अन्य कलाकारों में कोई भी उल्लेखनीय नहीं है।

सही मुद्दे पर व्यंग्यात्मक फिल्म बनाने की कोशिश में लेखक-निर्देशक असफल रह जाते हैं। दृश्यों से संयोजन और चित्रण में बारीकी नहीं है। यूं लगता है कि सीमित बजट में सब कुछ समेटने की जल्दबाजी है।

अवधि- 107 मिनट

abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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