सत्तर के दशक से आज भी यहां चाय की चुस्कियों संग होती है चुनाव पर चर्चा

दून में होने वाली राजनीतिक गतिविधियों की गवाह रही है एक चाय की दुकान। यह वही दुकान है जहां चुनाव के दौरान कैंपेनिंग की रणनीति तय हुआ करती थी।

By Raksha PanthariEdited By: Publish:Mon, 01 Apr 2019 04:32 PM (IST) Updated:Mon, 01 Apr 2019 04:32 PM (IST)
सत्तर के दशक से आज भी यहां चाय की चुस्कियों संग होती है चुनाव पर चर्चा
सत्तर के दशक से आज भी यहां चाय की चुस्कियों संग होती है चुनाव पर चर्चा

देहरादून, गौरव ममगाईं। चाय की एक ऐसी दुकान, जो सत्तर के दशक से दून में होने वाली राजनीतिक गतिविधियों की गवाह रही है। यह वही दुकान है, जहां चुनाव के दौरान कैंपेनिंग की रणनीति तय हुआ करती थी। खासकर परेड मैदान में होने वाली बड़े-बड़े नेताओं की जनसभाओं के दौरान यहां राजनीति में इंट्रेस्ट रखने वाले लोगों का जमघट लगा करता था। आज भी 'डिलाइट कैफे' के नाम से चलने वाली चाय की यह दुकान अपनी उस गौरवशाली परंपरा का निर्वाह कर रही है। 

चुनाव पर चर्चा का आनंद तो चाय की चुस्कियों के बीच ही आता है। पता ही नहीं चलता, कब घंटों गुजर गए। आज से दो-ढाई दशक पहले तो चुनाव के दौरान चाय पर चर्चा इलेक्शन कैंपेनिग का अनिवार्य हिस्सा मानी जाती थी। यही वजह है कि आज भी जब उस दौर के लोगों के जेहन में दून के 'डिलाइट कैफे' की स्मृतियां ताजा हैं। अस्सी के दशक में डिलाइट कैफे ने इस परंपरा को सहेजने का बखूबी काम किया। परेड मैदान में हुई पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व चंद्रशेखर की जनसभाएं हों या फिर कांग्रेस नेता ब्रह्मदत्त की, ये कैफे उन सभी का गवाह रहा है। सुखद यह कि आज भी यह कैफे अपनी संस्कारी परंपराओं का पूरी शिद्दत से निर्वाह कर रहा है। 

कैफे संचालक सुनील पांडे बताते हैं कि बीते पांच दशक से उनका यह कैफे अस्तित्व में है। अस्सी के दशक में हुई पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जनसभा को याद करते हुए सुनील कहते हैं कि तब वह बहुत छोटे थे। उनके पिता किशन पांडे कैफे का संचालन किया करते थे। उसी दौरान परेड मैदान इंदिरा गांधी की जनसभा हुई थी। जनसभा में शिरकत करने वाले कई लोग दुकान पर चाय पीने आए थे। 

उन्हें आज भी अच्छे से याद है कि चुनाव के दिनों में कैफे के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा रहता था। तीन से पांच लोग कई सारे ग्रुप में हाथों में चाय की प्याली लिए चुनावी गुणा-भाग किया करते थे। खास बात यह कि उनमें पक्ष के भी होते थे और विपक्ष के भी। सभी शालीनता से अपनी बात रखते थे। सबके अपने-अपने तर्क हुआ करते थे, मगर मनमुटाव कहीं नजर नहीं आता था। 

अराजक सोच वालों के लिए सीख 

आपसी द्वेष और रंजिश को लेकर एक-दूसरे से भिड़ने वाले राजनीतिक दलों के सदस्यों को इस चर्चा से सीख लेनी चाहिए। आज भी डिलाइट कैफे में चाय की चुस्की लेने के लिए हर दल के सदस्य आते हैं। यहां चर्चा का विषय सिर्फ राजनीति होता है। सभी पक्ष-विपक्ष में बेबाकी से अपनी राय रखते हैं और एक-दूसरे की बात को गंभीरता से भी सुनते हैं। इस दौरान न कोई विवाद होता है और न कोई अभद्रता का परिचय ही देता है। 

'जून रत्न' मिलने की परंपरा भी कायम 

डिलाइट कैफे पुरानी यादों को आज भी बखूबी संजोये हुए है। यहां 50 वर्ष पुरानी 'जून रत्न' की परंपरा भी खासी लोकप्रिय मानी जाती है। यहां चाय पीने आने वाले लोग महज ग्राहक नहीं, बल्कि क्लब सदस्य के रूप में जाने जाते हैं। ये सदस्य हर वर्ष 'जून रत्न' पुरस्कार के लिए वोटिंग करते हैं और योग्य व्यक्ति का चुनाव करते हैं। इसमें वह व्यक्ति चुना जाता है, जो राजनीति में अच्छी समझ रखता हो। साथ ही मनोरंजन करने में भी माहिर हो। 

यहीं बनी थी उत्तराखंड आंदोलन की रणनीति 

इस कैफे का उत्तराखंड आंदोलन से भी खास नाता रहा है। उत्तराखंड आंदोलन के सर्वोपरि नेता भी यहां आकर रणनीति बनाया करते थे। यहीं बैठकर वे स्थानीय लोगों को एकजुट करने और उत्तराखंड आंदोलन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित कराते थे। 

कैफे का इतिहास 

सुनील ने बताया कि डिलाइट कैफे सत्तर के दशक में न्यू मार्केट में चलता था। वहां उनके पिता किशन पांडे सहायक के तौर पर काम करते थे। लेकिन, 12 साल बाद वह कैफे बंद हो गया। तब उनके पिता ने इसी नाम से दर्शन लाल चौक में टी-स्टॉल खोला। इस कैफे की खास बात यह है कि यहां राजनीति पर ही गुफ्तगू होती है। यहां पूर्व काबीना मंत्री दिनेश अग्रवाल, सूर्यकांत धस्माना, विधायक हरबंस कपूर समेत अन्य नेता भी चाय की चुस्कियां लिया करते थे। 

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