एक देश एक चुनाव: क्यों जरूरी है लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराना

1967 तक केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ होते रहे हैं। पुन संभावना तलाशने के लिए स्थायी समिति गठित हुई। समिति ने माना अक्सर होने वाले चुनाव विकास कार्यों के समय का नुकसान होता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sun, 19 May 2019 04:33 PM (IST) Updated:Sun, 19 May 2019 04:52 PM (IST)
एक देश एक चुनाव: क्यों जरूरी है लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराना
एक देश एक चुनाव: क्यों जरूरी है लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराना

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। आमतौर पर हर साल औसतन देश में तीन से चार विधानसभा चुनाव कराए जाते हैं। 17वीं लोकसभा के चुनाव के साथ भी चार राज्यों के चुनाव कराए जा रहे हैं। किसी भी चुनाव की तारीख घोषित होने के साथ लगी आचार संहिता के बाद देश और जनहित के कल्याण के लिए जरूरी तमाम नीतियों और योजनाओं को लंबे अर्से के लिए ठंडे बस्ते में जाना पड़ता है। ऐसा बहुत कम समय साल में निकल पाता है जब देश के किसी हिस्से में आचार संहिता न लगी हो। आचार संहिता लगने के चलते केवल रुटीन का ही काम हो पाता है। सरकार कोई नीतिगत फैसला नहीं ले पाती है। हमारे राजनीतिक दल भी हमेशा चुनाव की तैयारी में लगे रहते हैं। चुनाव से हटकर कोई विकास संबंधी सृजनात्मक सोच इनके एजेंडे में स्थान ही नहीं बना पाती है। मंत्री से लेकर संतरी तक सब चुनाव प्रचार में व्यस्त रहते हैं। तमाम ऐसी वजहें हैं तभी तो एक बड़ा अकादमिक तबका लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराने की भी बात करता है। 

खर्चीले और श्रमसाध्य चुनाव

चुनाव बहुत खर्चीले और श्रम साध्य हो चुके हैं। सारे सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा एजेंसियों को चुनाव के बंदोबस्त में लगाना पड़ता है। लोकसभा चुनाव की बात अगर छोड़ दें तो 28 राज्यों के चुनाव ही काफी मशक्कत भरे होते हैं। शायद चुनाव के मद में सबसे ज्यादा खर्चने वाले हम दुनिया के शीर्ष देश होंगे। 

 विचार मंथन जारी

समय-समय पर चुनाव आयोग भी इस आशय का सुझाव देता रहा है जिस पर गंभीरता से विचार भी किया जा रहा है।

लॉ कमीशन की सिफारिश

1999 में लॉ कमीशन की 170वीं रिपोर्ट में हर साल चुनाव कराए जाने के चक्र से निजात पाने की जरूरत बताया गया। पांच साल में एक साथ चुनाव कराए जाने की प्रणाली की ओर धीरे-धीरे हमें बढ़ने की सलाह दी गई।

साथ-साथ की संभावना 

1967 तक केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ होते रहे हैं। पुन: इसकी संभावना तलाशने के लिए संसद की एक स्थायी समिति भी गठित हुई। समिति ने भी माना कि अक्सर होने वाले चुनाव विकास कार्यों के समय का नुकसान होता है।

परदेस में प्रावधान

इंग्लैंड: आम चुनाव और स्थानीय निकायों के चुनाव 1997 से एक साथ ही कराए जा रहे हैं। इटली, बेल्जियम और स्वीडन जैसे यूरोपीय देशों में भी साथ-साथ का प्रावधान है। 

कनाडा: पालिका चुनाव की तारीख नियत है।

दक्षिण अफ्रीका: राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनाव एक साथ होते हैं। नगर पालिका के चुनाव इनसे नहीं जुड़े होते हैं।

बड़ी आपत्तियां

इस व्यवस्था पर कई लोग अपनी आपत्तियां भी खड़ी करते हैं। जैसे अगर कोई राज्य सरकार सत्ता में आने के एक साल बाद गिर जाती है तो क्या होगा? संसद और विधानसभा में सत्ताधारी दल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का प्रावधान है। इसके पारित होने के बाद मध्यावधि चुनाव कराए जाते हैं। यदि इनके चुनाव नियत कर दिए जाते हैं तो इस लोकतांत्रिक हथियार के कुंद हो जाने का खतरा है।

चुनावों का इतिहास

लोकसभा और विधानसभाओं के पहले चुनाव स्वाभाविक रूप से एक साथ 1952 में कराए गए। 1957, 1962, 1967 के दौरान यही प्रक्रिया जारी रही। उस दौरान वाम दलों को छोड़ दें तो किसी भी राज्य में कांग्रेस को टक्कर देने वाली कोई पार्टी नहीं थी। राज्यों में क्षेत्रीय दलों के उभार से राजनीतिक साम्य गड़बड़ा गया। लिहाजा चुनी सरकारें अस्थिर हुईं। राज्यों को मध्यावधि चुनाव में उतरना पड़ा। केंद्र भी इससे अछूता नहीं रहा।

गड़बड़ाया क्रम: 1967 के बाद कुछ राज्यों में तमाम कारणों से पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता ने चुनावों की समयावधि का क्रम गड़बड़ा दिया। 

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