चित्रकार भूरी बाई जिन्होंने अपनी लगन और मेहनत से पाया शानदार मुकाम, देश-विदेश में हो रही तारीफ

जीविका चलाने के लिए गांव से शहर आना पड़ा। छोटे बच्चों को लिए पति के साथ तड़के दिहाड़ी के लिए निकल जाती थीं। अचानक जिंदगी ने नया मोड़ लिया और कभी शौकिया दीवारों पर अपनी कल्पना उकेरने वाली भूरी बाई एक नामी चित्रकार बन गईं।

By Prateek KumarEdited By: Publish:Wed, 08 Dec 2021 04:55 PM (IST) Updated:Wed, 08 Dec 2021 04:55 PM (IST)
चित्रकार भूरी बाई जिन्होंने अपनी लगन और मेहनत से पाया शानदार मुकाम, देश-विदेश में हो रही तारीफ
असंख्य महिलाओं की प्रेरणा हैं भूरी बाई ।

नई दिल्ली [सीमा झा]। मेरी जिंदगी इतनी रंग-बिरंगी व खूबसूरत होगी, कल्पना नहीं की थी। जब पद्मश्री पुरस्कार लेने दिल्ली आई तो मेरी धड़कन बहुत तेज थी। एक अजब सा रोमांच था मन में। समझ में नहीं आ रहा था कि सामने जब राष्ट्रपति जी होंगे तो उनसे नमस्ते कैसे करूंगी, पर वह पल भी गुजर गया, जैसे कि मेरे बीते दिन गुजर गए। संघर्ष के दिन बीत जाते हैं, लेकिन बीते हुए दिन बड़े कीमती होते हैं, जहां जिंदगी आपको बिल्कुल नए रूप में गढ़ती है। मैं इन दिनों अक्सर पुराने दिनों में लौट जाती हूं और सोलह-सत्रह साल की लड़की को देखती हूं जिसकी नई-नई शादी हुई थी, पर उसकी तंगहाली ने गांव में उसे टिकने नहीं दिया। वह झाबुआ (मध्य प्रदेश) से पति और छोटे बच्चे के साथ भोपाल आकर मजदूरी करने लगी। मैं भोपाल के भारत भवन परिसर में रोजाना काम पर जाया करती थी, पर कुछ ही समय बाद ईंट आदि ढोने के बजाय रंगों से खेलने लगी।

हुनर को सहेजा

दीवारों पर जो पेंटिंग मैं करती हूं, उसे पिथौरा पेंटिंग कहते हैं। इसमें भील जनजाति की सांस्कृतिक परंपराओं, जनजीवन आदि को उकेरा जाता है। इसी कला के साथ मैं बड़ी हुई थी। बचपन से इसे बनाती आ रही हूं। जब भी घर में कोई त्योहार होता या शादी-ब्याह के अवसर आते तो दीवारों की पुताई होती। फिर मां मुझसे उन दीवारों को सजाने के लिए कहतीं। उन दिनों प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग होता था। फूलों-पत्तियों से रंग निकाले जाते और ब्रश भी खुद ही बनाती थी। कभी पुराने कपड़े फाड़कर तो कभी पेड़-पौधों की लकड़ी से। मुझे याद है जब भी अवसर मिलता, मैं दीवारों को अक्सर हल्दी के पीले रंगों से रंग देती थी और अपने हुनर, कला को इस तरह दीवारों पर सहेज लिया करती थी।

लगन ने दिलाई पहचान

आगे बढ़ने के लिए और कुछ नहीं बस आपके भीतर अपने काम के प्रति लगन होनी चाहिए। यह लगन न होती तो मैं जिंदगी के इस मुकाम तक नहीं पहुंच सकती थी। वह दिन कभी नहीं भूल सकती, जब स्वामीनाथन साहब (भारत भवन के एक विंग रूपांकर आर्ट म्यूजियम के निदेशक जे. स्वामीनाथन) ने मेरे भीतर एक चित्रकार की खोज की थी। उस दोपहरी वह अपने कमरे की ओर जाते समय सामने पिथौरा कला से संबंधित चित्रों को देखकर ठिठक गए थे। उन्होंने वहां मौजूद मजदूरों से इस बारे में पूछा कि ये किसने बनाए, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। वहीं मेरी बहन खड़ी थी। उसे पता था कि मैं खाली वक्त में कुछ न कुछ उकेरती रहती हूं। उसने मुझे बुलाया और कहा कि भूरी तुम्हीं ने तो बनाया है, बता दो न साहब को। उसके कहने पर बहुत संकोच के साथ मैंने कहा कि मैंने बनाया है।

मजदूरी करना नहीं छोड़ा

स्वामीनाथन साहब को मेरी चित्रकारी पसंद आने लगी। यह सोचकर आज भी हंसी आती है कि मुझे नहीं मालूम था कि मेरे हुनर का इतना महत्व है कि इसके बदले मुझे दिहाड़ी में मिलने वाले पैसे से भी अधिक पैसे मिलने लगेंगे। दरअसल, मुझे उन दिनों रोज की दिहाड़ी छह रुपए मिलते थे तो चित्रांकन के लिए 10 रुपए मिल जाते थे। हालांकि मैंने 10 रुपए लेने से इन्कार किया था। आखिर किस बात के लिए इतने पैसे दिए जा रहे हैं? यह सवाल मेरे मन को परेशान कर देता था। इसलिए मैंने चित्रांकन के लिए 10 के बदले छह रुपए लेने की बात कही, पर जैसे-जैसे मुझे हर एक चित्रांकन के पैसे मिलने लगे तो धीरे-धीरे इस काम में आनंद आने लगा।

कला से जुड़ाव बढ़ने लगा

हाथों में ब्रश और रंग आ गए, जिनका मैंने पहले कभी प्रयोग नहीं किया था। कैसे ब्रश थामना है, रंगों को कैसे घोलना है आदि ये सब मुझे नए सिरे से सिखाया गया। मैं घंटों बैठकर पेंटिंग बनाने लगी। इतना कुछ करने के बाद भी मैंने पति के साथ मजदूरी करना नहीं छोड़ा। पति ने भी भरपूर साथ दिया और छोटे बच्चों को संभालने के साथ-साथ सारे कामकाज में हाथ बंटाया और खुद चित्रकारी भी सीख ली। हर बार लगता कि अबकी बार पहले से और अच्छा बनाकर दूंगी। यह ललक बढ़ती गई और कुछ ही सालों में लोग मुझे जानने लगे और दूसरी महिलाओं को भी मैं सिखाने लगी।

झुग्गी से अपने बसेरे में आई

स्वामीनाथन साहब ने एक बार पूछा कि तुम्हारा घर कहां है। इस पर मैं उन्हें अपना घर दिखाने ले गई। उन्होंने देखा कि हम पन्नी वाली झोपड़ी में रह रहे हैं। यह देखकर वह हैरान रह गए, पर एक मजदूर का घर तो ऐसा ही होता है। मैं उस घर में संतुष्ट थी। हालांकि दो छोटे बच्चों के साथ वहां रहना मुश्किल था। मेरी इस परेशानी को भी जल्द ही स्वामीनाथन साहब ने दूर करा दिया। मुझे अपनी कला का मूल्य मिलने लगा तो सम्मान भी मिला। सरकार ने मुझे प्लाट दिया जिस पर मैंने घर बनाया। आज भी उसी घर में रहती हूं।

प्रधानमंत्री से मुलाकात

मजूदरों के मेहनतकश हाथों जल्द ही बिल्डिंग बनकर तैयार हो गई। वहां मेरा चित्रांकन भी था। भारत भवन के उद्घाटन के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी आई थीं। उस दिन बड़ी चहल-पहल थी। जब मुझे पता चला कि प्रधानमंत्री से मुझे भी मिलवाया जाएगा तो मन में बहुत रोमांच था और खुशी भी। स्वामीनाथन साहब ने मुझे बड़े गौरव के साथ मिलवाया था। इंदिरा जी भी मेरे बारे में जानकर खुश हुईं और मुझे दिल्ली आने का आमंत्रण दिया। मेरा काम और उनके साथ मेरी तस्वीरें अखबारों में भी आई थीं। लोगों ने जब वे तस्वीरें देखीं तो मेरे पास दौड़े आए। तब मुझे लगा कि सचमुच मेरे हुनर की कद्र हो रही है।

सम्मान या सामान

मैं पढ़ना -लिखना नहीं जानती। इससे कई बार स्थिति हास्यास्पद भी हो जाती है, जैसे जब मुझे लोग जानने लगे और मेरी चित्रकारी की चर्चा होने लगी तो अखबारों में छपना आम बात हो गई। एक दिन ऐसे ही मुझे मध्य प्रदेश सरकार से सम्मान मिलने की खबर आई। घर पर लोगों का तांता लगने लगा। दूर-दूर से लोग मिलने आने लगे। जब सबने कहा कि अरे भूरी तुम्हें तो अब सम्मान मिलने लगा है तो मैं चौंक गई। कौन सा सामान मिलने वाला है? सामान तो मेरे पास काफी है? मेरी हैरानी ने बहुत लोगों को हंसाया। बाद में असलियत जानकर मैं भी खूब हंसी।

विदेश की यात्रा

मेरे काम की तारीफ होने लगी। मुझे विदेश तक अपनी कला को ले जाने के लिए आमंत्रण मिलने लगे। पहले आए दिन पत्र आते थे। हालांकि कोरोनाकाल में यह सिलसिला थम सा गया है। मुझे अमेरिका और फ्रांस की विदेश यात्रा नहीं भूलती है। अमेरिका में चार दिवसीय यात्रा थी। मेरे साथ हिंदी और अंग्रेजी के गाइड थे। खानपान और संस्कृति के अलग होने के कारण दिकक्तें आईं थीं। वहां के लोगों ने दिल छू लिया। बड़ी अच्छी समझ होती है उनमें कला और संस्कृति को लेकर। एक-एक चीज के बारे में विस्तार से पूछते हैं। बड़ा आनंद आता था जब लोग दिनभर मेरे साथ तस्वीरें खिंचवाते रहते थे।

भूलना-थकना-रुकना नहीं

यदि आपमें हुनर है तो उसे भूलना नहीं है। उसके साथ पूरी लगन से जुड़ें। रुकें नहीं, उसके साथ चलते रहें। धीरे-धीरे आप देखेंगे कितनी खुशी मिलती है। आप सारी चिंता और तकलीफ भूलने लगेंगे। कला को गले गलाएं, जिंदगी प्यारी लगने लगेगी।

विरासत की संभाल जरूरी है

हुनर है तो उसे आगे बढ़ाना भी हमारा फर्ज है। इसलिए मैंने अपने सभी बच्चों को यह सिखाया है। मेरी छह संतान हैं, सबको यह पेंटिंग आती है। वे भी मेरी तरह पढ़े-लिखे नहीं है, लेकिन उन्हें कामचलाऊ पढ़ाई आती है। इस बात का संतोष है कि उनमें हुनर है और वे अपनी विरासत को आगे ले जा सकते हैं। विरासत की संभाल बहुत जरूरी है, इसकी कद्र भी उतनी ही जरूरी है।

chat bot
आपका साथी