सात गोरों को मौत के घाट उतारने के दौरान शहीद हुए थे रामजीवन बाबू

सारण। अगस्त क्रांति 1942 के 18 अगस्त का दिन सारण जिले ही नहीं संपूर्ण बिहार के लिए स्मरणीय है। इसी

By Edited By: Publish:Tue, 18 Aug 2015 02:53 AM (IST) Updated:Tue, 18 Aug 2015 02:53 AM (IST)
सात गोरों को मौत के घाट उतारने के दौरान शहीद हुए थे रामजीवन बाबू

सारण।

अगस्त क्रांति 1942 के 18 अगस्त का दिन सारण जिले ही नहीं संपूर्ण बिहार के लिए स्मरणीय है। इसी दिन मढ़ौरा के मेहता गाछी में स्त्री-पुरुषों ने मिलकर छह अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था। इन अंग्रेजों की लाशों को रातों-रात गंडक नदी में डुबो दिया गया था जिन्हें ब्रिटिश हवाई जहाजें से भी नहीं ढूंढ पायी थी। इस तिथि को इतिहास में मढ़ौरा गोरा हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।

मालूम हो कि अगस्त क्रांति 1942 का बिगुल 7 अगस्त को ही कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रपिता की उद्घोषणा के साथ बज चुका था। 9 अगस्त आते-आते सभी बड़े राष्ट्रीय नेता जेलों में डाल दिये गये और तब क्रांति नेतृत्व विहीन हो गयी थी। इस समय क्रांति का नेतृत्व छात्र नौजवानों एवं किसानों ने अपने हाथों में लिया। अब क्रांति का स्वरूप बदल चुका था। इसने अहिंसा का मार्ग छोड़ हिंसा का रास्ता पकड़ लिया और देश के साथ बिहार इसमें अग्रणी रहा। सारण जिले के छपरा मुख्यालय और उस समय औद्योगिक नगरी मढ़ौरा में भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी। मढ़ौरा में तो क्रांति का सूत्रपात ही छात्रों द्वारा किया गया। मढ़ौरा के लेरूआ निवासी रामजीवन सिंह नाम का छात्र गोरा हत्या कांड के दौरान अंग्रेज पुलिस आफिसर से लड़ते हुए शहीद हुआ। उधर कांग्रेस सभा में बहुरिया रामस्वरूपा देवी की ललकार पर स्त्री पुरुष सभी जग पड़े और पारंपरिक हथियारों लाठी, डंडा, भाला, फरसा, ईट, पत्थरों से अंग्रेजी फौज के सिपाहियों को मौत के घाट उतार डाला।

मढ़ौरा में उस समय क्रांतिकारी छात्रों की गुप्त बैठकें स्टेशन के पास स्थित मध्य विद्यालय में हुआ करती थीं। अमर कुमार पाण्डेय, भीष्म प्रसाद यादव, तारकेश्वर सिंह, बैद्यजी आदि छात्र-युवा अपनी रणनीति बनाया करते थे। रामजीवन सिंह मैट्रिक के विद्यार्थी थे और कांग्रेस समाजवादी पार्टी के सूर्य सिंह, शीतल सिंह आदि के साथ ज्यादा रहते थे और वार्तालाप में ज्यादातर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि गर्म दल के नेताओं का पक्ष लिया करते थे। उन्हीं के जैसे आत्मोत्सर्ग के लिए उतावले रहते थे और वह मौका उन्हें मिल ही गया 18 अगस्त 1942 को। जब अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी बहुरिया रामस्वरूपा की सभा को तितर-बितर करने जा रही थी। रामजीवन बीच में ही उलझ पड़े और अपनी शहादत देकर मढ़ौरा के लोगों को जगा गये। शहादत व्यर्थ नहीं गयी। एक रामजीवन की कीमत पर लोगों ने छह गोरे मारे।

मढ़ौरा के उस अमर शहीद की याद में 1970 के दशक में उच्च विद्यालय मढ़ौरा के पास शहीद स्मारक का निर्माण किया गया। उस स्मारक को उद्घाटन करते हुए तत्कालीन मंत्री दारोगा प्रसाद राय ने कहा था कि रामजीवन की शहादत से उपजे जनाक्रोश की गूंज लंदन की संसद तक में गूंजी थी। प्रधानमंत्री चर्चिल ने कहा था कि जिस मढ़ौरा में हमारे सिपाहियों को मारकर उनकी लाशें तक खपा दी गयी उस मढ़ौरा में मशीनगन लगाकर 19 किमी की रेडियस को मानव विहीन बना दिया जाये। इसकी पुष्टि मढ़ौरा के पुराने लोग करते हुए कहते हैं मार्टन फैक्ट्री की छत पर मशीनगन लगी थी जो नाचते हुए गोलियां बरसाया करती थी।

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