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    बिहार: मिलना और बिछुड़ना रही राजद-कांग्रेस की नियति, जब बीजेपी को हराने आए साथ तो बची इज्जत

    By Akshay PandeyEdited By:
    Updated: Tue, 26 Oct 2021 05:57 PM (IST)

    सच यह है कि 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद से दोनों पार्टियां एक दूसरे की पूरक रही हैं। साझे में लड़े तो इज्जत बची। अलग-अलग लड़ने पर खास सफलता नहीं मिल ...और पढ़ें

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    राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और नेता राहुल गांधी। साभारः इंटरनेट मीडिया।

    राज्य ब्यूरो, पटना: राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने कांग्रेस के बिहार प्रभारी भक्त चरण दास को भकचोन्हर क्या कह दिया, दोनों पार्टियां एक दूसरे की बखिया उधेड़ने में लग गई हैं। सच यह है कि 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद से दोनों पार्टियां एक दूसरे की पूरक रही हैं। साझे में लड़े तो इज्जत बची। अलग-अलग लड़ने पर खास सफलता नहीं मिली। इन वर्षों में राजग विरोधी वोटरों की गोलबंदी मुख्य तौर पर इन्हीं दोनों दलों के बीच होती रही है। लिहाजा जब ये साथ रहे, वोटों और सीटों की संख्या बढ़ गई। तारापुर और कुशेश्वरस्थान के उप चुनाव की तरह हरेक चुनाव में दोनों दलों को लगता है कि असली ताकत हमारे पास ही है। यह लड़ाई का तात्कालिक कारण बनता है। फिर भाजपा को रोकने के नाम पर दोनों साझे में चुनाव लड़ने लगते हैं। 

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    एकीकृत बिहार विधानसभा का आखिरी चुनाव 2000 में हुआ था। दोनों अलग-अलग लड़े। राजद 293 (तब 324 सदस्य होते थे।) पर लड़ा था। 124 पर जीत हुई थी। नीतीश कुमार की अगुआई में राजग की सरकार बनी थी। यह सात दिनों में गिर गई। फिर कांग्रेस की मदद सेे राजद की सरकार बनी। 2005 तक दोनों सरकार में रहे। ऐन फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में दोनों के बीच सीटों को लेकर झगड़ा शुरू हो गया। राजद 210 पर लड़ा। कांग्रेस ने 84 उम्मीदवार उतारे। राज्य विभाजन के बाद विधानसभा सीटों की संख्या 243 रह गई थी। राजद के 75 और कांग्रेस के 10 उम्मीदवार जीते।

    आठ महीने में फिर एक हो गए

    फरवरी के चुनाव परिणाम पर सरकार नहीं बनी। अक्टूबर में फिर विधानसभा का चुनाव हुआ। तब तक इस दोनों दलों को लगने लगा था कि दोस्ती में ही भलाई है। अक्टूबर का चुनाव साझे में लड़ा गया। राजद 175 और कांग्रेस के 51 उम्मीदवार उतरे। राजद की सदस्य संख्या 75 से कम होकर 54 पर आ गई। कांग्रेस को एक सीट का नुकसान हुआ। उसके नौ उम्मीदवार जीत पाए। फिर राजद से दोस्ती को फालतू करार दिया गया। 

    और एक खराब अनुभव

    2010 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सभी सीटों पर अकेले लड़ी। चार पर जीत हुई। राजद का भी बुरा हाल हुआ। 168 सीटों पर लड़कर उसे महज 23 सीटें हासिल हुई। यह दोनों दलों के जीवन का सबसे खराब चुनाव साबित हुआ। उसके बाद 2015 और 2020 का विधानसभा चुनाव दोनों साझे में लड़े। परिणाम हक में आया। 2015 में तो महागठबंधन की सरकार ही बन गई। 2020 में सरकार बनते-बनते रह गई। इसका दोष कांग्रेस को दिया गया। क्योंकि 70 सीटों पर लडऩे के बाद उसके सिर्फ 19 उम्मीदवार जीत पाए। राजद ने सरकार न बनने के लिए कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराया। कहा गया कि लडऩे लायक उम्मीदवारों की कमी के बावजूद कांग्रेस जिद कर अधिक सीटों पर लड़ी। 

    कांग्रेस में राजद विरोधियों की संख्या बढ़ी 

    समयके साथ कांग्रेस के रूख में बदलाव आ रहा है। अब राज्य इकाई में उन नेताओं की कमी हो गई है, जो राजद की तरफदारी करते रहे हैं। कांग्रेसियों के इस हिस्से को लग रहा है कि राज्य में स्वतंत्र पहचान की गुंजाइश बन रही है। अगले विधानसभा चुनाव के लिए उनके पास चार साल का समय है। अगर उप चुनाव के परिणाम में जीत या सम्मानजनक वोट आता है तो कांगे्रस की नियति बदल सकती है।