शहरनामा शहरनामा शहरनामा

बेशक लंबी गर्दन है, लेकिन साहब की है, नहीं फंसेगी बेशक लंबी गर्दन है, लेकिन साहब की है, नहीं फंसेगी लंबे समय से बड़े-बड़े ओहदे पर रहने का अनुभव निराला होता है। बहुत कुछ तरकीब सीखने को मिलता है।

By JagranEdited By: Publish:Mon, 27 Feb 2017 03:07 AM (IST) Updated:Mon, 27 Feb 2017 03:07 AM (IST)
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बेशक लंबी गर्दन है, लेकिन साहब की है, नहीं फंसेगी

लंबे समय से बड़े-बड़े ओहदे पर रहने का अनुभव निराला होता है। बहुत कुछ तरकीब सीखने को मिलता है। साहब ने सीखा भी खूब है और उस पर अमल भी बखूबी करते हैं। अपनी गर्दन कुछ लंबी है, लेकिन आज तक कहीं फंसी नहीं। बंदोबस्त पहले से ही कर देते हैं। किसी परीक्षा में शायद ही कभी फेल हुए हों। इस बार परीक्षा की घड़ी है और साहब की तैयारी मुकम्मल। एक दौर निपट चुका है। दूसरा दौर शुरू होने वाला है, लेकिन असली खेल आखिरी दौर में होता है। उसकी शुरुआत अभी नहीं हुई है, लेकिन कील-कांटे पहले से ही ठोक दिए गए हैं। हेराफेरी हुई तो पहले जिले के छोटे हाकिम लोग जवाबदेह होंगे, फिर मंझोले। बात आगे बढ़ेगी तो कुछ दूसरे लोगों के गिरेबान धरे जाएंगे। सबसे ऊपर बैठे साहब नाक पर मक्खी तक नहीं बैठने देंगे। मजाल है कि कोई नींद चुरा ले। साहब का कंबल उठा कर झांकने की तो कोई सोच भी नहीं पाएगा।

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सपनों के खिलाड़ी हैं साहब, हर रोज सजाते हैं नए अरमान

हजार सपने हैं, कोई एक तो काम आएगा। इसी उम्मीद में रोज ताने-बाने बुने जा रहे। कहिए तो साहब सपनों के खिलाड़ी हैं। हर रोज नए ख्वाब जगाते हैं। लोगों की जब तक नींद खुलती है तब तक सपने उड़नछू हो गए होते हैं, लेकिन साहब लगे रहते हैं। वे फिर-फिर नए सपने दिखाते हैं। साहब के जिम्मे छोड़ दीजिए तो पटना को पेरिस बना देंगे। हकीकत में न सही, बातों से क्या जाता है। परीक्षा की घड़ी है और साहब को बातों में अव्वल आना है। ऑनलाइन इंतजाम के लिए महीनों पहले से दावे शुरू हो गए। नतीजा सिफर, लेकिन साहब अखबारों में खूब छपे। कर्मचारियों को वर्दी में आने की ताकीद की गई, लेकिन वे आते हैं अपनी ही पोशाक में। फरमान जारी करते साहब सुर्खियों में तो रहे। अब साहब एक नया शिगूफा ले आए हैं। अपनी सरकारी वेबसाइट बेशक अपडेट नहीं हो, लेकिन साहब एलुमिनी पोर्टल बनाएंगे। कोई पूछे तो टॉपरों में किसका जिक्र होगा? पहले घोषित किए गए टॉपर या बाद के?

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बड़े मुर्गे फंसा दिए छोटे को, बेचारे दाना भी नहीं चुग रहे

एक नाव पलटी और 24 की जान गई। तब तक हाकिमों की लंबी फौज मजे में थी। यह फौज आज भी मजे में है और कमांडर के ऐश की तो पूछिए मत, लेकिन छोटे मुर्गे हलाल हो गए। वे बेचारे तो कभी कुकड़ुकूं भी नहीं बोलते थे, लेकिन बाग देने वाले बड़े मुर्गे अपनी जान बचाकर उन्हें हलाल करा दिए। बेचारे मुर्गे। अभी नौकरी के लंबे दिन बाकी हैं और सिर पर तोहमत भारी। इसी कोफ्त में वे दाना भी नहीं चुग रहे। आने वाले कल की चिंता लगी है। कहां ठांव-ठिकाना होगा, तय नहीं। तमन्ना किसी सुकून वाली जगह की है, लेकिन किस्मत में तो अच्छे दिनों की अभी उम्मीद नहीं। जिनके बूते पर फड़फड़ाते थे उन्होंने ही दड़बे पर ताला जड़ दिया है। अब दूसरे दरवाजे पर दस्तक की सोच रहे, लेकिन दिक्कत यहां भी है। दूसरे दरवाजे वाले मुर्गे चोंच मारते हैं।

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जग विराना है और लोग बेगाने, माया महाठगिनी हम जानी..

रिश्तों की डोर बहुत मजबूत होती है। अब तक तो यही सुनते आए थे, लेकिन यहां तो एक झटके में ही फुस्स हो गई। पहले साहब कुछ भी करते थे तो करीने से और इसी करीने में दामन बचता रहा। इस बार भी करीने से ही किए, लेकिन किस्मत दगा दे गई। अपने ही कमबख्त निकले। दो चपत भी नहीं झेल पाए और साहब का नाम बक दिए। जिन्हें साहब बनाने की सोच रहे थे, उन्होंने ही साहब का बिगाड़ दिया। अब साहब सिर धुन रहे। चिढ़ इस कदर कि अपना डेरा अलग ही मुनासिब समझा। अब अकेले में सोचते-गुनते हैं तो रिश्तों का मर्म समझ में आता है। सब माया-मोह है। यह जग विराना है और लोग बेगाने। साहब जब-तब बुदबुदा रहे। माया महाठगिनी हम जानी..।

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डॉक्टर साहब की इस बीमारी का कौन करेगा इलाज

डॉक्टर साहब की प्रसिद्धि का हर तबका कायल है। चिकित्सा सेवा, समाज सेवा और राजनीतिक क्षेत्र में परिचय के मोहताज नहीं। राजधानी के बड़े अस्पताल में सेवा दी। रिटायरमेंट के बाद एक कंपनी में निदेशक पद पर सेवा दे रहे हैं। पूरी जिंदगी में अपने लिए एक घर तक नहीं बना सके। शुक्र है कि जिस कंपनी के निदेशक हैं उसने रहने के लिए खूबसूरत बंगला राजधानी के बीच बो¨रग रोड इलाके में मुहैया करा दिया। अब कंपनी से रहने के लिए मिले बंगले पर आमदनी और खर्च का हिसाब रखने वाले सरकारी विभाग की बुरी नजर लग गई है। इस बुरी नजर का ट्रीटमेंट कराना पड़ रहा है। बंगला के अलावा डॉक्टर साहब को कंपनी से वेतन से मिलता है। अपने वेतन के अनुपात में टैक्स भी जमा करते हैं, लेकिन पुत्र के कारण पेंच फंस गया। दरअसल पुत्र भी उसी कंपनी में वेतनभोगी निदेशक हैं, लेकिन रहते हैं डॉक्टर साहब को मिले बंगले में। बंगले पर बुरी नजर की शायद वजह भी यही है कि पिता की आमदनी का हिसाब तो है पुत्र का क्यों नहीं? इस बीमारी का इलाज तो आर्थिक मामले के विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।

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मास्टर साहब पढ़ाते हैं चुनाव जीत का गणित, कराएंगे बखेड़ा

नगर निगम चुनाव जीतना है तो चले जाइए सदर ब्लॉक में गुरुजी के पास। प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने के लिए बहाल हुए मास्टर साहब चुनाव जीतने का गणित पढ़ाने में माहिर हैं। ट्यूशन फीस जमा कर दीजिए तो आपका विरोधी वोटर का नाम कटकर दूसरे वार्ड में चला जाएगा। यदि आपके समर्थक दूसरे वार्ड या पंचायती क्षेत्र में रहते हैं तो उनका नाम मनचाहे बूथ की मतदाता सूची में जुड़ जाएंगे। सदर ब्लॉक में मास्टर साहब को किसने इस कार्य में प्रतिनियुक्त किया यह तो सिर्फ शिक्षा विभाग को पता है। बहरहाल मास्टर साहब जिस तरह का चुनावी गणित बना रहे हैं उससे नगर निगम चुनाव में बखेड़ा तय है।

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साहब तो चले गए, अब खाली हो रही मातहतों की जेब

दानापुर मंडल में तैनात एक अधिकारी का तबादला हो गया है। तबादला के बाद उनके सम्मान में भोज का आयोजन किया गया है। भोज में पांच लाख रुपये खर्च होने का अनुमान जताया गया है। फंड प्रबंधन के लिए जंक्शन पर कमेटी बनाई गई है। कमेटी के लीडर सीधे सभी प्रभारियों को फोन कर बड़े साहब के नाम पर हड़काने की कोशिश करने लगे हैं। पहले तो एक-एक प्रभारी से दस-दस हजार रुपये की मांग की गई। इनकार करने पर स्थानांतरण तक की धमकी दी गई। बाद में इसे घटाकर पांच-पांच हजार रुपये किया गया, हालांकि बहुत से शाखा प्रभारी ने इस राशि को भी देने से मना कर दिया है। संभावित तिथि पांच मार्च रखी गई है। कमेटी के सामने फंड मैनेजमेंट के लिए मुख्यालय के अधिकारियों का निर्देश ही एकमात्र सहारा हो सकता है।

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