चुनावी चुनौती - विरासत के द्वंद्व से समर्थकों को बाहर निकालने की चुनौती

विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले विधान परिषद चुनाव में भाजपा से पिछड़ जाने के बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को फिर से आत्ममंथन की जरूरत है। फिलहाल लालू का रास्ता एक चौराहे पर आकर ठहर गया है।

By Amit AlokEdited By: Publish:Tue, 14 Jul 2015 08:57 AM (IST) Updated:Tue, 14 Jul 2015 09:07 AM (IST)
चुनावी चुनौती - विरासत के द्वंद्व से समर्थकों को बाहर निकालने की चुनौती

पटना [अरविंद शर्मा]। विधानसभा चुनाव से महज कुछ महीने पहले विधान परिषद चुनाव में भाजपा से पिछड़ जाने के बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को फिर से आत्ममंथन की जरूरत है।

फिलहाल लालू का रास्ता एक ऐसे चौराहे पर आकर ठहर गया है, जहां से आगे की राह किसी नायक की खोज के बाद निकलेगी। लालू अपने समर्थकों को विरासत के द्वंद्व से जितना जल्दी निकालेंगे, उन्हें उतना ही फायदा होगा।

विलंब लालू के लिए उलटा पड़ सकता है। इस मामले में उन्हें अपने रिश्तेदार और समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह से सबक लेना चाहिए। तमाम असमंजस और विरोधों के बावजूद मुलायम ने उत्तर प्रदेश में 2012 के चुनाव के पहले ही अपने पुत्र अखिलेश यादव का नाम आगे कर दिया था।

लालू ने 90 के दशक में अपने स्टाइल से पिछड़ों में सत्ता की भूख जगाई और बिहार में लंबे समय तक शासन किया, मगर अब हालात बदल गए हैं। लालू को तय करना पड़ेगा कि वह 90 के दशक की राजनीति करना चाहते हैं या उससे आगे की।

अपराधियों पर अंकुश से किसी को इनकार नहीं हो सकता, किंतु चुनाव के पहले जिस तरह पूरी राजनीति को अगड़े बनाम पिछड़े में बांट दिया गया, उसका संदेश प्रगतिवादी मतदाताओं में अच्छा नहीं गया।

विधान परिषद के नतीजों ने गठबंधन के रहनुमाओं को भी सबसे बड़ा सबक दिया है। गठबंधन का धर्म परस्पर विश्वास और साझा कार्यक्रम होता है। केवल बयान से कुछ नहीं होता, लेकिन पूरे चुनाव में लालू की पाठशाला अलग लगती दिखी और नीतीश कुमार की नीतियों की राह भी अलग थी।

प्रत्याशियों के लिए न तो किसी ने संयुक्त कार्यक्रम तय किया और न ही प्रचार हुआ। रघुवंश प्रसाद के मुताबिक चुनाव में गठबंधन का कोई स्वरूप नहीं दिखाई दिया। जाहिर है कि गठबंधन की प्रकृति पर लालू को फिर से विचार करना पड़ेगा।

राजद के दरकते किले के लिए सिर्फ रामकृपाल, रंजन और पप्पू यादव को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लालू की पार्टी में रीतलाल यादव और संजय राय जैसों की भी एक परंपरा चल निकली है।

पार्टी में उभरे नए वर्ग को नियंत्रित करना जरूरी है, मगर पड़ताल करना भी जरूरी है कि ऐसी स्थिति क्यों आई? राजद में लालू के प्रति वफादारों की संख्या क्यों घट गई? आसपास मंडराने वालों की महत्वाकांक्षा उबाल पर है तो इसकी वजह भी है। लालू राज में जिनका विकास हुआ, वह भी अब विधायक-विधान पार्षद बनना चाहते हैं। लालू को समर्पित और महत्वाकांक्षी कार्यकर्ताओं में अंतर करना पड़ेगा और उस मुताबिक उन्हें संतुष्ट भी करना पड़ेगा।

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