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बर्लिन: अतीत में लिपटा एक आधुनिक शहर

जर्मनी की राजधानी बर्लिन एक ऐसा आधुनिक शहर है जहां की दीवारें आज भी अतीत की दास्तां सुनाती हैं। अलका कौशिक के संग चलते हैं इस ऐतिहासिक शहर की यादगार सैर पर..

By Priyanka SinghEdited By: Published: Sun, 01 Mar 2020 07:00 AM (IST)Updated: Sun, 01 Mar 2020 07:00 AM (IST)
बर्लिन: अतीत में लिपटा एक आधुनिक शहर
बर्लिन: अतीत में लिपटा एक आधुनिक शहर

बर्लिन के टेगेल हवाई अड्डे पर विमान के उतरने भर की देर थी कि कुछ ही देर में एयरोब्रिज उसके सीने से आ जुड़ा और चंद मिनटों में ही हम भी बाहर थे। मगर बाहर तो एयरोब्रिज से निकले थे। अब हैरानगी इसे लेकर थी कि मुश्किल से तीस मीटर चलने के बाद ही हम हवाईअड्डे से भी बाहर पहुंच चुके थे! इससे पहले कि कुछ समझ में आता, हमारी टैक्सी भी सामने थी। मुस्तफा ने मेरे हाथ से लगेज लिया, डिक्की में लादा और हमारी मंजिल की तरफ लेकर चल पड़ा। करीब डेढ़ सौ किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ती मर्सिडीज की सवारी करते हुए हमारा दिमाग इसी सवाल से गुत्थमगुत्था था कि दुनिया के आधुनिकतम कहलाने वाले शहरों में शुमार बर्लिन का एयरपोर्ट इतना छुटका कैसे हो सकता है? मुस्तफा ने इस राज पर से पर्दा उठाते हुए बताया कि टेगेल की बनावट षट्कोणीय है, जिसकी वजह से कई बार विमान और सड़क की दूरी मामूली ही बचती है। सुविधा के मामले में इसका कोई तोड़ नहीं हो सकता। यह तो पहली ही शाम थी, अभी हमें ऐसे ही और भी कई आश्चर्यों से रूबरू होना था। बर्लिन के क्रिसमस बाजारों से मिलने इस तरफ चले आए थे। सुना था कि यूरोप में क्रिसमस की धड़कनें देखनी हों, तो जर्मनी एक बार जरूर आना चाहिए।

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बर्लिन का शानदार और खूबसूरत ठिकाना   

पॉल-रॉबेसन स्ट्राबे पर हमारा एयरबीएनबी बुक था और यहां तक पहुंचने में करीब 20 मिनट लगे। हवाईअड्डे से चले थे, तो आसमान पर बादलों के साए जमा थे। जब यहां पहुंचे तो बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी। एक तो रात का वक्त, अनजाना शहर और उस पर बारिश के उन छींटों में भीगते हुए सामने इंडियन रेस्टोरेंट से अपने अड्डे की चाबी भी लेनी थी। इस बीच, मुस्तफा को हम विदा कर चुके थे। चौथी मंजिल पर हमारा अपार्टमेंट था, जिस तक पहुंचने की लिफ्ट का वजूद हमें कहीं नहीं दिखाई दिया। थकान खास नहीं थी और यूरोप में घुमक्कड़ी की आदतों के चलते लगेज भी ज्यादा नहीं था, तो भी सीढिय़ों पर सांस फुलाते हुए चढऩा अखरा था। बहरहाल, अपना घर देखकर मन झूम उठा। दो बेडरूम, एक बड़ा-सा लिविंग रूम, किचन, बॉलकनी और इन सबको आपस में जोडऩे वाला गलियारा मस्त था। यह दरअसल, एक आर्टिस्ट कपल का घर था, जो वेकेशन पर जाते हुए इसे एयरबीएनबी पर लिस्ट कर गए थे। होटल या हॉस्टल में टिकने की बजाय हमने इस वैकल्पिक ठौर को चुना था, ताकि कुछ तो अलग अनुभव हासिल हो। किचन में पास्ता, नूडल्स, रेडी टु कुक बिरयानी, करी के अलावा कितनी ही किस्मों की हर्बल चाय, कॉफी, अगरबत्तियां भी थीं, जिन पर मेड इन इंडिया या मेड इन श्रीलंका की स्टीकर चिपके थे।

शुरू हुई घुमक्कड़ी

अगले दिन नजदीकी ट्रेन स्टेशन बानहोमर स्ट्रासे में घुसने से पहले ही सामना हुआ था बर्लिन की दीवार के उस छोटे से हिस्से से, जिसे यहां सहेजकर रखा गया है। यह वही स्टेशन था, जहां से कितने ही यहूदी, जिप्सी, समलैंगिक, गरीब, रोगी, विकलांग हिटलरी कहर से जान बचाकर भागे थे। स्टेशन के बाहर इसी अतीत को दिखाने वाली एक छोटी-सी प्रदर्शनी लगी है। कुछ देर यहीं ठिठकी रह गई हूं, मेरे आसपास कुछ और सैलानी भी हैं। हर कोई गुम है, चुप है और प्रदर्शनी देख लेने के बाद चुपचाप अपनी राह हो लेता है। उस निष्ठुर दौर की त्रासदी के बारे में पढ़कर कोई किसी से कुछ कहना नहीं चाहता। जैसे मुंह पर ताले जड़ दिए हों। यूरोप के देशों में दीवारों पर इस तरह कितने ही कलाकारों की बतरस दर्ज हैं। समझ में आए या नहीं, इतना तो मालूम है कि ग्रैफिटी के जरिए हालात पर विरोध दर्ज कराते हैं कलाकार।

पब्लिक ट्रांसपोर्ट का जाल 

बर्लिन में बसों के अलावा लंबी और कम दूरी का विशाल मेट्रो नेटवर्क है। मेट्रो एस-बान और यू-बान कहलाती है। इनके अलावा, कई रूटों पर ट्राम भी सरपट दौड़ती हैं। प्राइवेट कैब और ऊबर तो हैं ही। 


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