बहुत ही खास है बिहार का वैशाली, जहां से सारी दुनिया ने ली लोकतंत्र की प्रेरणा
सदियों पुराने सांस्कृतिक वैभव को संजोकर रखा गया है बिहार स्थित वैशाली में। इस नगरी को दुनिया में गणतंत्र की जननी कहा जाता है। तो आइए चलते हैं वैशाली के शानदार सांस्कृतिक सफर पर।
निरभ्र आकाश से इस समय ओस के कण झरते हैं। शरद का चंद्रमा अपनी पूरी आभा पर है। ऐसे समय में दुनिया को धर्म और ज्ञान की रोशनी देने वाली नगरी वैशाली की छटा यहां आकर ही महसूस की जा सकती है। बीती कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा, नारायणी या कि बागमती नदी तट पर स्नानर्थियों की जुटी भीड़ इन नदियों के जल को अंजुली से भर कर घर तक लाई है। यहां की मिट्टी को आंचल में समेट कर अपने घर-आंगन के लिए खुशियों की पोटली बांध ली है। वैशाली तो भारतीय गणतंत्र के चाक की धुरी है। इस भूमि के लिए वर्णित वह समय इतिहास का प्रामाणिक हिस्सा है। जब आपके चरण यहां की रज पर पड़ेंगे, निश्चय ही आपको अलग अनुभूति होगी।
गणतंत्र की जननी
पूरी दुनिया को लोकतंत्र का ज्ञान देने वाली इस भूमि का इतिहास ईसा से 725 वर्ष पुराना है, जब यहां लिच्छवी गणतंत्र था, जिसे वज्जि संघ कहा जाता था। इसमें केंद्रीय कार्यपालिका में एक गणपति यानी राजा, उप राजा, सेनापति तथा भंडागारिक थे। ये ही शासन का कार्य देखते थे। पूरी व्यवस्था बिलकुल आज के संसद की तरह थी। वास्तव में सारी दुनिया ने लोकतंत्र की प्रेरणा यहीं से ली। महात्मा बुद्ध भी वैशाली के इस वज्जि संघ से बहुत प्रभावित थे।
ज्ञान मीमांसा की भूमि
वैशाली भगवान बुद्ध के ज्ञान और स्मृतियों को अपने में समाहित किए है। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर की यह जन्मभूमि है। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए मंदिर प्रांगण में ही भव्य व्यवस्था है। वैशाली और इसके आसपास का पोर-पोर धार्मिक, नैसर्गिक और आध्यात्मिक थाती समेटे है। कुछ वर्ष पूर्व यहां जापानी मंदिर, थाई मंदिर और वियतनाम बौद्ध स्तूप व विहार का भी निर्माण किया गया है।
वैशाली के नजदीक ही एक गांव है कुण्डलपुर (कुंडग्राम)। यह जगह भगवान महावीर का जन्म स्थान होने के कारण काफी लोकप्रिय है। वैशाली से इसकी दूरी मात्र 4 किलोमीटर है। यहां भगवान महावीर का एक बड़ा मंदिर है। इसके नजदीक ही एक संग्रहालय है, जहां प्राकृत, जैन दर्शन व अहिंसा विषय में शोध कार्य किया जाता है। ज्ञातृपुत्र महावीर को श्रमणधर्मा कहा गया है। भगवान महावीर ने संन्यास लेने के पूर्व 30 वर्ष तक तथा संन्यास ग्रहण करने के बाद बारह वषरें तक यहीं समय व्यतीत किया। विद्वान आचार्य विजेंद्र सुरि बताते हैं कि बुद्ध के काल में वैशाली श्रमण निर्ग्रंथों-जैनों का एक बड़ा केंद्र था। यह बात न केवल जैनग्रंथों से, बल्कि बौद्ध ग्रंथों से भी ज्ञात होती है। बौद्धधर्म के अनुयायियों के हृदय में कपिलवस्तु का नाम सुनकर जो श्रद्धा उपजती है, जैनियों में वही आदर का भाव वैशाली और कुंडग्राम के नाम से उत्पन्न होता है।
भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बना स्तूप
यहां निर्मित स्तूप भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेष पर बने आठ मौलिक स्तूपों में एक है। बौद्ध मान्यता के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद कुशीनगर के मल्लों ने उनके शरीर का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया था। अस्थि अवशेष के आठ भागों से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था। शेष सात भाग मगध नरेश अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्य, अलकप्प के बुली, रामग्राम के कोलिय, वेठद्वीप के एक ब्राह्मण तथा पावा एवं कुशीनगर के मल्लों को प्राप्त हुए थे। पांचवीं शती ईसा पूर्व में निर्मित 8.07 मीटर व्यास वाला मिट्टी का एक छोटा-सा स्तूप था। मौर्य, शुंग व कुषाण काल में पकी ईंटों से इसे परिवर्धित किया गया। इस स्तूप का उत्खनन काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, पटना द्वारा वर्ष 1958 में किया गया था। इस समय वैशाली में इस स्तूप का दर्शन करने काफी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। उत्खनन में प्राप्त सामग्री अभी पटना संग्रहालय में रखी हुई है। यहां 72 एकड़ में स्तूप का निर्माण कराने की शुरुआत हो चुकी है।