स्पीति वैली का दुश्वार सफर जो बन गया हमेशा के लिए यादगार
कुछ जगहों का सफर बेशक रोमांच भरा होता है लेकिन कब, कौन सी सिचुशन आपको मुसीबत में डाल सकती है इसका भरोसा नहीं होता। ऐसा ही खूबसूरत और खतरनाक एक्सपीरियंस है स्पीति वैली का सफर।
यात्राओं की अपनी कुछ दुश्वारियां होती हैं। खासतौर से घुमक्कड़ों कि जो घने जंगलों और दूरदराज पहाड़ों में घूमते हैं, उनकी जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं होता। पिछले से पिछले साल जब उत्तराखंड में भूकंप आया था। मैं खुले आसमान के नीचे अपने टेंट में सो रहा था। सुबह नींद खुली तो गांव के घर तबाह हो गए थे।अभी कुछ दिनों पहले स्पीति में जब बर्फबारी शुरू हुई, तो किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि यह आने वाली तबाही का संकेत है, लेकिन दूरदराज के लोग पापुलेटेड एरिया की तरफ बढ़ने लगे थे। आपको बता दूं कि स्पीति कोई नगर नहीं है, यह एक घाटी है, जहां घर बहुत ही कम हैं। अभी भी इतने बड़े भूभाग पर निवास करने वाले लोगों की संख्या सिर्फ 35 हजार के आसपास है। ज्यादातर पर्यटक ट्रैकिंग के लिए निकलते हैं और खुले आसमान के नीचे कैंप में रहते हैं। यह जगह अपनी ऊंची पर्वतमाला के कारण अभी भी शेष दुनिया से कटी हुई है। यहां पर स्थित रोहतांग दर्रा 3,978 मीटर की ऊंचाई पर इसको कुल्लू घाटी से अलग करता है। कुंजुम दर्रा भी यहीं पर स्थित है यह लाहौल और स्पीति को एक दूसरे से अलग करता है।
यह जगह दुनियाभर में अपने दुर्गम रास्तों और बदलते मौसम के कारण जानी जाती है। ज्यादा ऊंचाई के कारण सर्दियों में यहां बहुत ठंड होती है। गर्मियों में मौसम बहुत सुहावना होता है। शीतकाल में ठंड के कारण यहां बिजली और यातायात की बेहद कमी हो जाती है जिस कारण यहां पर्यटन में भारी कमी हो जाती है। सिल्क रूट की ट्रिप पूरी करने के साथ ही अगस्त महिने की 27 तारीख को मैं भी यही सोचकर आया था कि रास्ता बंद होने तक दो तीन महीने यहीं रहकर अपनी किताब पूरी करुंगा। फिर रास्ता बंद होने को होगा तो वापस दिल्ली लौट जाऊंगा। शुरू के कुछ दिनों तक मैं भी अपने टेंट में रहा पर 18 सितंबर बारिश ज्यादा होने लगी तो होमस्टे में आ गया था।
यही मेरे लिए सबसे पॉजिटिव कड़ी साबित हुआ। पॉजिटिव इसलिए क्योंकि हममें से ज्यादातर लोग नानमोटरेबल जगहों पर थे। जहां से अगर आपको किसी गांव में पहुंचना हो तो पूरा दिन लग जाता है। यही बाकि लोगों के साथ हुआ। स्थिति का आभास होने के बावजूद भी लोग निकल नहीं पाए। शुरू में बाई रोड लोगों को बाहर निकालने की कोशिश हुई। लोगों को निकालने का काम चल ही रहा था, लेकिन भारी बारिश और बर्फबारी की वजह से सड़कें तबाह हो गईं। अब हमें इस बात का अंदाजा हो चुका था कि हम फंस चुके हैं। रोहतांग दर्रा यहां की लाइफलाइन है, इसके बंद होने के साथ ही बाहरी दुनिया से हमारा कनेक्शन बिल्कुल खत्म हो गया। जिसकी वजह से हम सब घबराए हुए थे। ऐसा लग रहा था कि अब बस जिंदगी और मौत के बीच इंतजार बचा है। जिसके खत्म होने और नहीं होने की कोई सीमा नहीं है। खाने पीने के लिए भी हमारे पास कुछ नहीं बचा था। एक कमरा जिसमें चार लोग भी नहीं रह सकते उसमें 20-20 लोग आ गए थे।
हमारे मन में बस बार-बार एक ही सवाल था कि अब हम यहां से जिंदी निकल पाएंगे भी कि नहीं। और यह सवाल भूख और प्यास दोनों को मार देता था। 48 घंटे तक मुझसे कुछ नहीं खाया गया, लेकिन वह कहते हैं न कि जाको राखे साइयां मार सके ना कोई।
हारती हुई हिम्मत को सहारा उस समय मिला आसमान में जब दो हेलीकॉप्टर अचानक से उड़ते दिखाई दिए। मतलब, बाहरी लोगों को हमारी स्थिति का सही सही अंदाजा लग गया था। कुछ लोगों को बचा लिया गया, कुछ लोगों को बचाने का कार्य परस्पर चल रहा है, कुछ लोगों की जिंदगी बीच रास्ते में ही हार गई। सच कहूं तो मौत का डर मुझे भी था और मैं पूरी तरह से घबराया हुआ था। पर नहीं चाहता था कि मेरे अपने इस बात से घबराएं। पर घर पर बताना जरूरी था तो खबर कर दी।
22 घंटे बाद एयरलिफ्ट करके हेलीकॉप्टर से दस लोगों निकाला गया पर लोग संख्या में बहुत ज्यादा थे। तब तक बीआरओ के लोग इधर-उधर नजर आने लगे थे। आपको बता दूं कि सीमा सड़क संगठन यानी कि बीआरओ ही है, जिसकी वजह से दुनियाभर के घुमक्कड़ यहां आने का साहस जुटा पाते हैं। उन्होंने कई जगहों पर अपने अस्थायी कैंप लगाए और धीरे-धीरे लोगों को उस कैंप तक ले जाया गया। फिर निजी वाहनों से मनाली लाया गया तब कहीं जाकर मुझ खुदको अपने होने, बच जाने का असल एहसास हुआ।
संजय शैफर्ड, यार बंजारे