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कला और संस्कृति का बेहतरीन मेल है दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप 'माजुली', जहां बिखरी है अपार सुंदरता

उत्तर-पूर्व की खूबसूरती लोक कला और संस्कृति का बेहतरीन संगम है दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप माजुली। यह देश का पहला ऐसा द्वीप है जिसे एक जिला घोषित किया गया है। चलते हैं यहां...

By Priyanka SinghEdited By: Published: Wed, 27 Nov 2019 09:50 AM (IST)Updated: Wed, 27 Nov 2019 09:50 AM (IST)
कला और संस्कृति का बेहतरीन मेल है दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप 'माजुली', जहां बिखरी है अपार सुंदरता
कला और संस्कृति का बेहतरीन मेल है दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप 'माजुली', जहां बिखरी है अपार सुंदरता

मैं पूर्वोत्तर के राज्य असम के जोरहाट में था। यहां एक रोचक-यात्रा मेरा इंतजार कर रही थी। दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप माजुली की यात्रा। माजुली या माजोली का मतलब होता है दो नदियों के बीच की जगह। जोरहाट के निमाटी घाट पर गाड़ी से उतरकर मुझे फेरी तक जाना था। एक फेरी लोगों से भरी जा रही थी। उस पर लकड़ी की तख्तियां लगाई जा रही थीं। फिर एक के बाद एक बाइक सवार उस पर अपनी बाइक चढ़ा रहे थे। दो कारें पहले ही डेक पर खड़ी हो चुकी थीं। लोग एक दुनिया से दूसरी दुनिया में जाने की तैयारी कर रहे थे। यह नजारा देखकर नदी पार वह द्वीप मुझे अब और रहस्यमयी लगने लगा था।

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ग्रामीण जीवन की अद्भुत झांकी: अगली सुबह मैं अपने गाइड भाबेन के साथ माजुली की यात्रा पर निकल गया। यहां की अलग-अलग जनजातियों के लोग अपनी दिनचर्या को शुरू करने की तैयारी में दिखाई दे रहे थे। सड़क के दोनों ओर छोटी-छोटी झोपडि़यां थीं, जिनके आस-पास कहीं बच्चे खेलते हुए नजर आते, तो कहीं पुरुष पानी भरते दिखाई दे जाते। महिलाओं ने लुंगी पहनी हुई थी और ऊपरी हिस्से पर एक खास कपड़ा लपेटा हुआ था। इस पारंपरिक पोशाक को मेखला कहा जाता है। हरे-भरे खेतों में जैसे हरियाली का उत्सव हो रहा हो। नदी पर बसा द्वीप होने के कारण यहां पानी की कोई कमी नहीं, इसलिए खेतों आस-पास जहां तक नजर जाती सब कुछ हरा-भरा नजर आता। यहां के मूल निवासियों की झोपडि़यों के इर्द-गिर्द सुंदर क्यारियां बनी हुई थीं, जिनके चारों ओर बांस की लकड़ी से बाड़ बनाई गई थी। क्यारियों में सब्जियां और फूल बोए गए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे ब्रह्मपुत्र नदी को पार कराने वाली फेरी मुझे किसी दूसरी दुनिया में ले आई हो। भारत के ग्रामीण जीवन की एक अद्भुत झांकी दिखाई दे रही थी यहां। करीब-करीब हर झोपड़ी के बाहर कताई-बुनाई करने के लिए जातर रखा हुआ था, जिनमें धागे लगे हुए थे। कुछ जातर ऐसे थे, जो बुनकरों का इंतजार कर रहे थे। स्पष्ट था कि माजुली अपने हस्तशिल्प के लिए भी जाना जाता है।

सामागुरी सत्र और मुखौटे बनाने की अनोखी परंपरा: गरमूढ़ सत्र के बाद मैं सामागुरी सत्र की तरफ चला आया। यहां एक टीनशेड के बाहर एक शख्स बैठे बांस की खपच्चियों से कुछ बना रहे थे। कमरे के अंदर रंग-बिरंगे पचासों मुखौटे दीवारों पर लटके हुए थे। भीम, राम, नरसिंह, रावण, नरकासुर न जाने कितने मिथकीय किरदारों के रंग-बिरंगे मुखौटे यहां नजर आ रहे थे। ये मास्क जिस शख्स की देखरेख में बने थे, उनका नाम प्रदीप गोस्वामी था। उन्होंने बताया कि मुखौटों की यह परंपरा श्रीमंत शंकरदेव की ही देन है। वैष्णव परंपरा में बदलाव की लहर लाने वाले शंकरदेव ने श्रीकृष्ण से जुड़ी कहानियों को कहने के लिए रंगमंचीय विधा का इस्तेमाल किया, जिसे उन्होंने 'भाओना' कहा। इसके लिए उन्होंने मुखौटों का इस्तेमाल करना शुरू किया। और धीरे-धीरे यह एक कला के रूप में विकसित हो गया। यहां तीन तरह के मुखौटे बनाए जाते हैं। बड़ामुखा (जो शरीर के आकार का होता है), लोतोकाईमुखा (जिसकी आंखें और जीभ वगैरह हिल सकती हैं) और मुखमुखा (मुंह के आकार का मुखौटा)। ये मुखौटे वे प्राकृतिक चीजों से ही बनाते हैं। इनमें बांस, मिट्टी, गोबर, जूट और लकड़ी शामिल है। 

कब आएं

गर्मियों में माजुली में काफी उमस रहती है। बरसात में मौसम बढि़या रहता है, लेकिन जलभराव और बाढ़ की वजह से आने-जाने में दिक्कत होती है। सर्दियों का मौसम यानी अक्टूबर से फरवरी यहां आने के लिए सबसे बढि़या समय है।

कैसे पहुंचें

नजदीकी हवाई अड्डा जोरहाट शहर से 7 किलोमीटर दूर है। जोरहाट रेलमार्ग से भी जुड़ा है। इसके अलावा, गुवाहाटी जैसे असम के प्रमुख शहरों से जोरहाट तक बस से भी आया जा सकता है। जोरहाट से फेरी लेकर एक घंटे में माजुली पहुंचा जा सकता है। 

उमेश पंत


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