World Milk Day 2022: वर्गीज कुरियन ने रखी थी देश में दुग्ध क्रांति की आधारशिला
ग्रामीण भारत में स्वावलंबन का सबसे बड़ा आंदोलन सिद्ध हुआ है सहकारी रूप से दुग्ध उत्पादन। इसने न केवल देश को विश्व में प्रथम स्थान दिया है बल्कि स्त्रियों तथा निर्धन किसानों के लिए समृद्धि व सशक्तीकरण को वास्तविक रूप से साकार किया है। मनीष त्रिपाठी का विश्लेषण...

मनीष त्रिपाठी। स्वावलंबन के साथ सुबह की शुरुआत ही ‘सुप्रभात’ है। जब आप सुबह चाय का पहला कप हाथ में लिए होते हैं अथवा बच्चों के लिए दूध गर्म कर रहे होते हैं, तब अनायास ही भारत के सबसे बड़े स्वावलंबन आंदोलन के सहभागी बन रहे होते हैं। दूध की हर वह बूंद जो गांव से आपके गिलास तक की यात्रा तय करती है, स्वयं में सहकारिता की वह इतिहासगाथा संजोए है, जिसकी शुरुआत साल 1946 में गुजरात के कैरा जिला (अब खेड़ा) में एक ब्रिटिश कंपनी और उसके बिचौलियों द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुद्ध उठ खड़े हुए दुग्ध कृषकों द्वारा की गई थी। स्वावलंबन की दिशा में उठाए गए इस कदम का प्रभाव कितना बड़ा था, यह आप बूंद के उस प्रतीक चिन्ह को देखकर समझ सकते हैं, जो देश भर में सहकारी दुग्ध उत्पाद संग्रहण-वितरण केंद्रों से लेकर डिलीवरी वाहनों और पैकेट्स तक पर होता है! जी हां, यह वही क्रांतिकारी कदम था, जिसकी वजह से भारत आज दुनिया में दुग्ध उत्पादन में अव्वल देश है!
बिचौलियों का जाल
भारत कृषिप्रधान देश है मगर जिनके पास जमीन ही न हो, उनके लिए खेती-किसानी का मतलब भी मजदूरी होता है। ग्रामीण इलाकों में अधिकतर आबादी ऐसे भूमिविहीन अथवा सीमांत कृषकों की है और घर-गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए उनका सबसे बड़ा सहारा होते हैं दुधारू पशु। दूध की खरीद-बिक्री के कागजों में इन्हें दुग्ध कृषक और आम बोलचाल में दूधिया कहा जाता है। अंग्रेजों की गुलामी के उस दौर में कैरा जिला के ऐसे कई किसान गायों का दूध बेचकर अपना गुजारा करते थे। गांव से बाहर जाने के साधन न थे और न ही उन्हें वहन करने की क्षमता, सो बिचौलिए ही उनका चलता-फिरता बाजार हुआ करते थे। यह बिचौलिए जिस कंपनी के लिए काम कर रहे थे, उसका नाम था पोल्सन बटर कंपनी। दुश्वारी के उन दिनों में बिचौलियों को दूध बेचकर बच्चों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करना भी किसानों के लिए मुश्किल था तो वहीं पोल्सन बटर कंपनी मुंबई में उसी दूध और उससे बने मक्खन को बेचकर मुनाफे की गाढ़ी मलाई खा रही थी। ब्रिटिश स्वामित्व वाली इस निजी कंपनी का मुनाफा और मक्खन दोनों ही जब मुंबई के अमीरों में चर्चा का विषय थे, 20वीं शताब्दी के चौथे दशक के ढलान के उन दिनों में कैरा के गरीब किसानों ने एक ऐसी मांग रखी, जो कंपनी और उसके बिचौलियों को बहुत नागवार गुजरी। किसान चाहते थे कि कंपनी दूध की थोक खरीद का दाम इतना तो बढ़ा दे कि बढ़ी हुई लागत और खर्चा-पानी निकल आए। मगर बात करना तो दूर, कंपनी ने अपना इन्कार भी बिचौलियों के मार्फत ही भिजवाया।
सरदार का सत्याग्रह
मक्खन महंगा बिकता है और मेहनत माटी के मोल, यह बात कैरा के किसान जान तो रहे थे मगर करें तो करें क्या? कसमसाहट और कुछ कर न पाने की कसक के बीच उन्हें याद आए सरदार वल्लभभाई पटेल। एक ही जिला होने के नाते वे उनके पड़ोसी भी थे और पहुंच में भी। दरअसल, सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म नाडियाड में हुआ था, जो कैरा जिला के चार तालुकों में से एक था। यह भी संयोग रहा कि जब स्वाधीनता के कई साल बाद कैरा जिला का विभाजन हुआ तब इसके तीन तालुके आनंद, पटलाद और बोरसाड नए जिले आनंद में शामिल किए गए, जबकि नाडियाड नवगठित खेड़ा जिला में शामिल किया गया। दस्तावेजों में बदली पहचान के मुताबिक भारत की दुग्ध क्रांति का इतिहास इसी खेड़ा जिला और वर्तमान आनंद के नाम दर्ज है। पुराने किस्सों की रस्सी पर इतिहास का झूला आगे-पीछे आता-जाता रहता ही है और अब हम खड़े हैं प्रसिद्ध अधिवक्ता तथा कांग्रेस के प्रखर नायक सरदार वल्लभभाई पटेल के आंगन में। पोल्सन कंपनी के शोषण से त्रस्त (वजह यह थी कि कैरा जिला में दूध खरीदने का एकाधिकार केवल पोल्सन कंपनी के बिचौलियों को ही था) निर्धन दुग्ध किसान सरदार पटेल के सामने रुआंसे खड़े थे। गोधन, गोरस और गोदान र्को ंहदू जीवन की त्रिवेणी मानने वाले सरदार पटेल कुछ देर की वार्ता के बाद ही लौहपुरुष के अवतार में थे। उन्होंने कहा, ‘आप सभी कंपनी को तत्काल प्रभाव से दूध बेचना बंद कर दीजिए। आप दूध देंगे ही नहीं तो कंपनी को झुकना पड़ेगा। आप सभी मिलकर सहकारी संस्था बनाएं और बिचौलियों को हटाकर अपना दूध खुद बेचें।’ यह बहुत बड़ी बात थी। सरदार उस सत्याग्रह की बात कर रहे थे, जो भारत के डेयरी क्षेत्र में अंग्रेजों के प्रथम प्रवेश को खुली चुनौती दे रहा था। किसानों ने उनका प्रस्ताव स्वीकार करने में तनिक भी हिचक नहीं दिखाई तो उसके पीछे ठोस कारण भी था। यह वही सरदार पटेल थे जिन्होंने 1918 में युवा अधिवक्ता के रूप में सफलतापूर्वक किसान सत्याग्रह संचालित कर ब्रिटिश सरकार को झुकने पर मजबूर किया था और खैरा के किसानों का लगान माफ करवा दिया था। इस सत्याग्रह की प्रतिष्ठा भारत में चंपारण सत्याग्रह जैसी ही है।
सहकारिता का सूत्रपात
किसानों को आश्वस्ति मिली तो उनके चेहरे पर उल्लास वापस लौटा। अब कुछ खो देने का डर नहीं था, खुदमुख्तार होने का जोश था। बड़ा जोखिम लेते हुए वे किसान बिचौलियों और ब्रिटिश सरकार के एकाधिकार से टकराने को खड़े हो गए थे। चार जनवरी, 1946 को सरदार पटेल ने अपने विश्वस्त सहायक मोरारजी देसाई (जो कालांतर में भारत के प्रधानमंत्री हुए) और त्रिभुवनदास पटेल को कैरा जिला के समारखा गांव में दूध बेचने वाले किसानों के साथ पहली बैठक के लिए भेजा। इस बैठक में भारत की पहली सहकारी दुग्ध संस्था की स्थापना की रूपरेखा बनी। इसका नाम रखा गया- कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ। अगर यह आपको पढ़ने में थोड़ा जटिल लगता है तो आप इसे ‘अमूल’ के नाम से भी याद रख सकते हैं!
कुरियन का कमाल
कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ ने दो गांवों और रोज औसत 250 लीटर दूध के साथ कारोबार शुरू किया। त्रिभुवनदास पटेल इसके प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए और त्रिभुवन काका के नाम से जगतप्रसिद्ध। लगभग चार साल बाद जब यह दुग्ध उत्पादक संघ अपनी शैशवावस्था में ही था, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की मास्टर डिग्री लेकर भारत लौटे एक युवा ने अपनी किस्मत बदलने को बेचैन किसानों की यह कोशिश देखी और फिर उन्हीं का होकर रह गया। यह थे वर्गीज कुरियन, जिन्हें अमेरिका से भारत लौटने के बाद वर्ष 1949 में आनंद तालळ्का स्थित सरकारी दुग्ध प्रसंस्करण इकाई में डेयरी इंजीनियर की नौकरी मिली थी। सरकारी कामकाज के बंधे ढर्रे से उकताए कुरियन ने त्रिभुवन काका को स्वत: ही पेशकश की कि वे उनकी एक प्रसंस्करण संयंत्र लगाने में सहायता करेंगे। किसानों के पारंपरिक कौशल और अनुभवजन्य ज्ञान के साथ कुरियन की आधुनिक शिक्षा और तकनीक ने वह कमाल किया कि 20वीं शताब्दी के छठे दशक की शुरुआत में कैरा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ पूरे गुजरात के दुग्ध कृषकों के लिए तीर्थ बन गया था। इन किसानों ने कैरा से सीखकर महसाणा, सूरत, वलसाड, भरूच, साबरकांठा, बनासकांठा, बड़ौदा, अहमदाबाद, पंचमहल, राजकोट आदि जिलों में सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ स्थापित किए। कैरा की नीतियां पूरे गुजरात के दुग्ध कृषकों के लिए एक अघोषित संविधान बन गई थीं और कामयाबी आदर्श। दुग्ध क्रांति की यह देसी दस्तक दिल्ली के गलियारों तक पहुंच गई थी।
शास्त्री का संकल्प
देशवासियों के दूध का गिलास और दुग्ध कृषकों का पेट दोनों ही भरने लगे तो आर्थिक स्वावलंबन के इस अनूठे अभियान की ओर केंद्र सरकार का ध्यान जाना स्वाभाविक ही था। वर्ष 1964 के अक्टूबर माह में अमूल पशु आहार संयंत्र के उद्घाटन के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री आनंद तालुका आए। निर्धारित प्रोटोकाल के अनुसार उन्हें रात्रि में वहां से वापस लौट जाना था, लेकिन उन्होंने वर्गीज कुरियन से आग्रह किया कि वे वहीं कहीं किसी दुग्ध कृषक के घर में रात्रि प्रवास करना चाहते हैं। कुरियन स्तब्ध रह गए। भारत के प्रधानमंत्री को वे यूं ही किसी झोपड़ी में कैसे ठहरा सकते हैं, वे क्या खाएंगे, कहां सोएंगे! मगर गरीबी में पले-बढ़े लाल बहादुर शास्त्री के मन में कोई द्वंद्व नहीं था, यह उनके लिए सहज-स्वाभाविक था। वे एक बड़ी रूपरेखा बनाकर चले थे। वह रात उनके लिए सोने की नहीं, एक बड़ी, बहुत बड़ी लकीर खींचने की रात थी। यह शास्त्री जी का स्वभाव था कि वे कोई भी काम करने से पहले उसकी तह तक जाते थे, उसकी सभी संभावनाएं परखते थे। इतिहास में रुचि रखने वाले जानते हैं कि जब उन्होंने देशवासियों से एक वक्त उपवास रखने की बात की थी, उस घोषणा से पूर्व वे खुद सपरिवार पूरे दिन भूखे रहे थे। खैर, अक्टूबर की उस रात आनंद में उन्होंने दुग्ध कृषकों से सब कुछ जाना-समझा। जब वे अमूल की कामयाबी का रहस्य समझ गए, सहकारिता की शक्ति को अपनी आंखों से देख लिया और भारत के गांवों में गरीबी हटाने के इस सबसे बड़े प्रयोग से सहमत हुए तब उन्होंने स्वावलंबन के इस आंदोलन को शिखर पर ले जाने की घोषणा की।
स्वावलंबन का आनंद
शास्त्री जी की इच्छानुसार 1965 में राष्ट्रीय दुग्ध विकास बोर्ड (एनडीडीबी) स्थापित किया गया, जिसका कार्य आनंद पैटर्न की राह पर देशभर में सहकारी दुग्ध समितियां तथा संघ गठित करना था। स्वाभाविक रूप से इसका मुख्यालय आनंद तालुका में स्थापित किया गया। प्रारंभिक दिनों में एनडीडीबी का वित्त पोषण भारत सरकार, डेनमार्क सरकार तथा अमूल द्वारा किया जाता था। इसे शिक्षण-प्रशिक्षण सामग्री तथा उपकरणों के रूप में यूनिसेफ से भी सहायता मिलती थी। 1969 में जब भारत सरकार ने देश में डेयरी उद्योग के विकास के लिए आपरेशन फ्लड कार्यक्रम की घोषणा की, तब सरकारी संसाधनों के सुचारू वितरण के लिए एक सरकारी क्षेत्र की कंपनी की आवश्यकता महसूस हुई। इस प्रकार 1970 में भारतीय डेयरी निगम (आईडीसी) अस्तित्व में आया। यह निगम केवल वित्तीय तथा प्रचार-प्रसार का कार्य देखता था जबकि आपरेशन फ्लड के लिए समस्त तकनीकी सहयोग व जानकारी एनडीडीबी के अधिकार क्षेत्र में थी। अक्टूबर 1987 में एनडीडीबी को पुनर्गठित करते हुए आईडीसी को इसी में ही समाहित कर दिया गया। आपरेशन फ्लड कार्यक्रम 1970 से 1996 तक तीन चरणों में क्रियान्वित किया गया। मार्च 2001 में भारत की 96,000 दुग्ध सहकारी समितियां आनंद पैटर्न की त्रिस्तरीय सहकारी संरचना द्वारा एकीकृत कर दी गईं। आनंद पैटर्न स्वावलंबन की वह सुगठित संरचना है जिसमें दूध बेचने वाले किसान (ग्राम समिति), जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ तथा तीसरे स्तर पर राज्य स्तरीय सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ की भूमिका होती है, जो क्रमश: दुग्ध संग्रहण, दुग्ध खरीद तथा दुग्ध और दुग्ध उत्पादों के विपणन के लिए उत्तरदायी हैं। इसके साथ ही यह पैटर्न सुनिश्चित करता है कि दुग्ध कृषकों को उनकी लागत का तत्काल भुगतान तथा मुनाफे का ईमानदारी से वितरण हो। इन सभी के शीर्ष पर एनडीडीबी आधुनिकतम प्रौद्योगिकी और विपणन के साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि दुधारू पशुओं की सबसे अच्छी तथा स्वस्थ नस्लों के विकास, पालन-पोषण और देखभाल में कोई कमी न रहे।
भारतीय दुग्ध उद्योग में आई इस क्रांति को श्वेत क्रांति, दुग्ध क्रांति जैसे नामों से भी जाना जाता है, लेकिन वास्तविक अर्थों में तो यह स्त्री उद्यम की क्रांति है। ग्रामीण जीवन का वास्तविक अनुभव रखने वाले पाठक इस बात से भलीभांति परिचित होंगे कि दुधारू पशुओं का पालन मूलरूप से महिलाएं ही करती हैं। वे ही उनकी देखभाल करती हैं, चारा खिलाती हैं और उन्हें दुहती हैं। एनडीडीबी ने इस तथ्य को भलीभांति स्वीकारते हुए 1995 से महिला डेयरी सहकारी नेतृत्व कार्यक्रम की शुरुआत की थी और इसके परिणाम पूरे भारत में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। आज सहकारी दुग्ध उत्पादन का यह नेटवर्क भारत के 418 जिलों में 1,55,634 ग्राम स्तरीय समितियों तक फैला हुआ है और इसके लगभग एक करोड़ 51 लाख सक्रिय दुग्ध कृषक सदस्यों में 43 लाख महिलाएं हैं!
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