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अपनी कविताओं में मानवता के करुण क्रंदन को मुखरित करते हैं ओज और पौरुष के निर्भीक कवि दिनकर

आधुनिक हिंदी के अमर महाकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कविता को कल्पना के व्योमकुंज से उतारकर यथार्थ के धरातल पर रख दिया। उनकी रेणुका हुंकार सामधेनी धूप और धुआं परशुराम की प्रतीक्षा तथा बारदोली विजय जैसी कृतियां राष्ट्रीय धारा की ज्वलंत पहचान हैं।

By Aarti TiwariEdited By: Published: Sat, 17 Sep 2022 04:54 PM (IST)Updated: Sat, 17 Sep 2022 04:54 PM (IST)
अपनी कविताओं में मानवता के करुण क्रंदन को मुखरित करते हैं ओज और पौरुष के निर्भीक कवि दिनकर
अमर महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकरÓ की कविताएं बढ़ा देती हैं देशप्रेम

 डॉ. चंपा श्रीवास्तव। रायबरेली।

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असाधारण ओज, विद्रोह एवं विस्फोट रामधारी सिंह दिनकर के काव्य का श्रंगार है। पीडि़त मानवता के करुण क्रंदन को मुखरित करने की वीणा उठाकर उन्होंने अपनी हुंकार से संपूर्ण राष्ट्र को जाग्रत कर दिया।

शैशव काल में ही पिता के देहावसान के कारण दिनकर के लालन-पालन एवं संस्कारित शिक्षा-दीक्षा के गुरुतर दायित्व का निर्वहन संस्कार और सेवा की प्रतिमूर्ति मां मनरूपा देवी ने ही किया। राष्ट्रीय पाठशाला में शिक्षा के विधिवत शुभारंभ के साथ ही जन्मजात राष्ट्रीयता के संस्कार सुदृढ़ होने लगे। उसी समय से ही 'दिनकर' वंदेमातरम् का गीत गाकर ग्रामवासियों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत की।

स्वयं की हुंकारमयी वाणी से सामाजिक उत्पीडऩ, कुंठा, बेबसी तथा करुण क्रंदन के विरुद्ध गर्जना से महाकवि दिनकर राष्ट्रीयता के महान उद्घोषक तथा क्रांति के उद्गाता बन गए। उनकी ओजस्वी वाणी के रस से हिंदी कविता प्राणवान हो गई। 'रेणुका', 'हुंकार', 'सामधेनी' 'धूप और धुआं', 'परशुराम की प्रतीक्षा' तथा 'बारदोली विजय' आदि कृतियां राष्ट्रीय धारा की ज्वलंत पहचान हैं। दिनकर की राष्ट्रीयता वस्तुत: उस परिवेश का प्रभाव है, जिसमें गांधी जी के नेतृत्व में रक्तहीन क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया जा रहा था, ऐसे विषम समय में प्रेम और सौंदर्य का साधक कवि शक्ति और शौर्य का आराधक बन गया। महाकवि वैभव की दीवानी दिल्ली को जब ब्रिटिश सत्ताधारी परदेशियों के बाहुपाश में अठखेलियां करते हुए देखता है तो उसकी कराह हुंकार में बदल जाती है-

'वैभव की दीवानी दिल्ली, कृषक मेघ की रानी दिल्ली,

अनाचार अपमान व्यंग्य की चुभती हुयी कहानी दिल्ली,

ब्रिटिश शासन में जकड़ी, दुखी, परेशान और परवश सामान्य जनता को पौरुष और वीरता का कवि दिनकर अतीत गौरव की गाथा सुनाकर, वर्तमान दुर्दशा का चित्रांकन करके उनमें पौरुष जाग्रत करने का स्तुत्य कार्य किया है।

हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाने वाले चीनियों ने ही जब भारत पर आक्रमण किया तो महाकवि दिनकर की हुंकारमयी कविताओं ने सेनापतियों में जो बलिदानी चेतना का संचरण किया, वास्तव में बेमिसाल तथा प्राणोत्सर्ग की लालसा जगाने वाला है।

'हमारे नौजवान घायल होकर आये हैं,

कहते हैं ये पुष्प दीप अक्षत क्यों लाये हो?

तिलक चढ़ा मत, जब हृदय में हूक हो,

दे सकते हो तो मुझको, गोली और बंदूक दो।।'

'कुरुक्षेत्र' में कवि ने स्पष्ट किया है कि अधिकार की रक्षा के लिए तथा अनाचार और अन्याय के विरोध में प्रतिशोधमूलक हिंसा भी अहिंसा से कम महत्वपूर्ण नहीं है। भ्रष्टाचार की चक्की में सदैव पिसते रहना और उनका विरोध न करना मानव के लिए कलंक है। तभी तो वे 'नील कुसुम' में स्पष्ट कहते हैं-

'गीतों से चट्टान तोड़ता हूं साथी,

झुरमुटें काट आगे की राह बनाता हूं

है जहां-जहां तम छिपा हुआ,

चुन-चुनकर उन कुंजों में आग लगाता हूं।।'

सार्वभौम मानवता के स्वप्नदर्शी कवि दिनकर का मानना है कि पुष्प के अभिलाषी व्यक्ति को शूल चुभने का भय नहीं होना चाहिए, क्योंकि गुलाब कांटों के बीच ही खिलता है और जो भी कांटों में हाथ डाल देगा, उसे ही गुलाब के सानिध्य का सुख मिलेगा। इसीलिए उनकी कृतियों में नवजीवन का स्पंदन है, विरोध का गर्जन तथा भावी युग का दर्शन है।


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