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    छठ में दिखता है भारत का अपूर्व लोक, विदेश तक फैल रही है इस संस्कृति की सुगंध

    By Aarti TiwariEdited By:
    Updated: Sat, 29 Oct 2022 07:08 PM (IST)

    सूर्य से सृष्टि है सूर्य ही जीवन है। छठ पर्व सूर्य की विराट प्रकाशमय चेतना के प्रति कृतज्ञता का उत्सव है। आज के युग में यह ऐसा पर्व है जो पूर्णत प्रकृति समादृत आराधना है। प्रकृति से आध्यात्मिक ऊर्जा लेकर उसी को अर्पित करना केवल छठ में ही दिखता है

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    चार दिनों के पर्व में घाटों पर नजर आती हैं छठ पर्व की रौनक

     मालिनी अवस्थी।

    गत वर्ष मुंबई के दो युवाओं ने मुझे बताया कि उनके पास छठ का एक गीत है और इसे वे मेरी आवाज में रिकार्ड करना चाहते हैं। मैंने शब्द और धुन देख अपनी सहमति दी। गीत था- ‘ई घर ई दुवरवा कर रहल बा इंतजार, तोहार गांव कर रहल बा इंतजार

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    आजा आजा बबुआ ई ह छठी मइया के त्योहार।’

    गीत के शब्द व धुन दोनों ही मार्मिक थे तो रिकार्डिंग के दौरान हम सब भावुक हो गए। उनमें से एक ने भर्राई हुई आवाज में कहा, ‘दीदी, हम मुंबई के होकर रह गए। संघर्ष में रात-दिन कुछ नहीं दिखता, लेकिन छठ आते ही गांव बुलाने लगता है, मां कुछ कहती तो नहीं, लेकिन उनकी आवाज सुनकर लगता है कि वह कहना चाह रही हैं कि बेटा, छठ है घर आ जा।’ छठ पर घर की राह ही समझ आती है। ऐसा है यह पावन पर्व!

    त्याग का पर्व

    बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश की मातृशक्ति के लिए छठ मात्र व्रत नहीं, बल्कि परिवार की कुशलक्षेम की मनोकामना का अनिवार्य सोपान है। इस कठिन व्रत को जिस श्रद्धा और मनोयोग से माताएं-बहनें करती हैं, वह सहज पूज्य है। उत्सव के केंद्र में कठिन तपस्या है। कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है और भोजन के साथ ही सुखद शय्या का भी त्याग किया जाता है। छठ के गीतों के साथ ही व्रत की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं। इन पारंपरिक गीतों की धुन और शब्द ऐसे होते हैं कि उन्हें सुनने मात्र से मन छठ के घाट पर तप करती माताओं की ओर चला जाता है।

    ‘पटना के घाट पर नरियर नरियर किनबे जरूर,

    हाजीपुर से केरवा मंगाई के अरघ देबे जरूर,

    आदित मनायेब छठ परबिया बर मंगबे जरूर,

    पटना के घाट पर नरियर नरियर किनबे जरूर।’

    सबकी अपनी अहम भूमिका

    यूं तो सभी त्योहार सपरिवार ही मनाए जाते हैं, किंतु छठ ऐसा पर्व है जिसमें परिवार का हर सदस्य छठ महापर्व के अनुष्ठान में पूरी श्रद्धा से अपना दायित्व पहले से तय कर लेता है। फिर पूरे समर्पण से उसका निर्वहन करता है। कौन बांस लेकर आएगा, कौन सूप दौरा ले आएगा, कौन गेंहू लाकर धुलवाएगा-पिसवाएगा, कौन घर की सफाई करेगा, कौन ठेकुआ बनाएगा और कौन व्रत रखेगा और कौन बहंगी लेकर नदी या पोखर तक साथ जाएगा। छठ के पारंपरिक गीत में यह मनुहार बहुत प्रत्यक्ष है-

    ‘काच काच बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए

    होई न बलम जी कहरिया बहंगी घाटे पहुचाये।’

    पुराण और विज्ञान सब एकमत

    सूर्य और छठ मईया का संबंध भाई-बहन का है। मूल प्रकृति के छठवें अंश से प्रकट होने के कारण इनका नाम षष्ठी पड़ा। वह कार्तिकेय की पत्नी भी हैं। षष्ठी देवसेना भी कही जाती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने की थी। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो षष्ठी के दिन विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। तब सूर्य की पराबैंगनी किरणें असामान्य रूप से एकत्र होती हैं और इनके कुप्रभावों से बचने के लिए सूर्य की ऊषा और प्रत्यूषा के रहते जल में खड़े रहकर छठ व्रत किया जाता है। सृजनकर्ता व पालनकर्ता-शक्ति के रूप में सूर्य की देव रूप में वंदना का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में मिलता है। सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में होने लगी थी और इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल में, ज्योतिष में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। वैज्ञानिकों ने गहन अध्ययन के बाद सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई। दीपावली के छठवें दिन उपासना किए जाने के कारण इस महत्वपूर्ण व्रत का नामकरण छठ पूजा हो गया। प्रात:काल सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अघ्र्य देकर पूजा की जाती है। पुराणों में षष्ठी देवी को मां कात्यायनी के नाम से भी जाना जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि परमात्मा ने सृष्टि रचने के लिए स्वयं को दो भागों में बांटा। दाहिने भाग से पुरुष, बाएं भाग से प्रकृति। प्रकृति का छठवां अंश होने के कारण इनका नाम षष्ठी है। ये सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्हें लंबी आयु देती हैं।

    भगवान राम ने भी की थी सूर्यपूजा

    वैसे तो कार्तिक मास में भगवान सूर्य की पूजा करने का विधान प्राचीन है, किंतु छठ की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोककथाएं प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार, लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुन: अनुष्ठान कर उनसे आशीष प्राप्त किया। यह भी मान्यता है कि छठ की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा शुरू की। कर्ण प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अघ्र्य देते थे। आज भी छठ में सूर्य भगवान को अघ्र्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। व्रत उद्गम की लोककथा कोई भी हो, किंतु छठ का सबसे सशक्त पक्ष है इस पर्व की लोकव्याप्ति! लोक ने जिस प्रकार छठ के त्योहार को मनोकामना ही नहीं, आस्था और आत्माभिव्यक्ति से जोड़ रखा है, उसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है।

    शुद्धता के लिए होते ढेरों प्रयास

    छठ में शुद्धता और पवित्रता पर विशेष बल दिया जाता है। छठी मईया की आराधना के लिए शरद ऋतु में प्रकृति ने सुंदर उपहार प्रदान किए हैं। केले की गहर हो या शरीफा, नारियल हो या अमरूद, नींबू या ईख। बहुत चाव से व्रती इन फलों को जुटाते हैं। नए पेड़ पर लगे फल की पवित्रता नष्ट न होने पाए, इसके लिए फल को जुठारने वाले सुगना (तोता) को भी क्षमा नहीं है। छठ के एक गीत में ऐसे तोते का जिक्र है, जो केले के गुच्छे के पास मंडरा रहा है। तोते को डराया जाता है कि अगर तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से की जाएगी, जो तुम्हें क्षमा नही करेंगे। फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप का भागी बनता है, पर उसकी भार्या सुगनी अब क्या करे बेचारी। कैसे सहे इस वियोग को-

    ‘केलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेडराय,

    उ जे खबरी जनइबो आदित (सूरज) से सुगा देले जुठियाए,

    उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरझाय,

    उ जे सुगनी जे रोए ले वियोग से आदित होइ ना सहाय देव होइ ना सहाय।’

    चार दिन तक जीवन का उत्सव

    पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात व्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बना शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत शुरू करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। इसमें कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आसपास के सभी लोग निमंत्रित होते है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस से तैयार चावल की खीर के साथ दूध-चावल का पिट्ठा बनाया जाता है। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। संध्या समय बांस की टोकरी में अघ्र्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार व पड़ोस के लोग घाट चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती तालाब या नदी किनारे एकत्र होकर सामूहिक रूप से अघ्र्य संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अघ्र्य दिया जाता है तथा छठी मईया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। यह नयनाभिराम दृश्य अभूतपूर्व होता है। अस्ताचल सूर्य को प्रणाम करता लोक...। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। व्रती वहीं पुन: एकत्र होते हैं जहां उन्होंने शाम को अघ्र्य दिया था। सूर्य भगवान को प्रणाम करती हुई गीत गाती मातृशक्ति अगले वर्ष पुन: आने का वायदा करते हुए प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करती हैं।

    ‘सुन ली अरजिया हमार ए छठी मईया,

    लिहलि अरघिया स्वीकार ए छठी मईया।’

    विदेश तक फैली देसी संस्कृति

    भारतीय संस्कृति की यह अद्वितीय पावन विरासत इसी पर्व में हमें संदेश देती है कि हम भारतीय उस परंपरा से हैं, जो उगते सूरज के साथ-साथ ढलते सूरज को भी सम्मानित करते हैं। छठ पर्व अब पूरे देश में मनाया जाने लगा है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, भोपाल व रायपुर आदि में छठ की अपार स्वीकार्यता के दर्शन हुए हैं। यह पर्व विदेश में भी धूमधाम से मनाया जाता है। आप इसी से समझें कि जिस समय आप इस लेख को पढ़ रहे हैं, मैं सुदूर आस्ट्रेलिया में मेलबर्न और सिडनी में छठ पर प्रवासी बंधुओं के विशेष आमंत्रण पर यात्रा में हूं। यह पर्व मारीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम, फिजी, अमेरिका व इंग्लैंड आदि में मनाया जाता है।

    (लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)

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