Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    शक्ति रूपी सीता का वरण मर्यादा और सदाचरण रूपी राम ही कर सकते हैं

    By Jagran NewsEdited By: Vivek Bhatnagar
    Updated: Mon, 21 Nov 2022 04:59 PM (IST)

    बड़े बड़े शूरवीर राजा धनुष को तिल भर हिला नहीं सके। वस्तुत ये सभी बलवान अवश्य थे परंतु उनमें राम जी जैसा सदाचार नहीं था। शक्ति स्वरूपा सीता को प्राप्त करने का मार्ग स्नेह-सम्मान और श्रद्धासम्मत नहीं था। नारी शक्ति को बल से नहीं सदाचार से प्राप्त किया जाता है।

    Hero Image
    भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और प्रकृति तत्व माता सीता का मिलन अनुपम है।

     संतोष तिवारी। रामकथा में श्रीराम-सीता विवाह माधुर्य के संचार का अद्भुत प्रसंग है। श्रीरामचरितमानस में सीता स्वयंवर का इतना अद्भुत वर्णन मिलता है, मानो रामकथा स्वयं कुछ क्षण के लिए स्वयंवर देखने में रत हो जाती है। सीता स्वयंवर की कथा यह संदेश देती है कि नारी शक्ति को अपार बल से नहीं जीता जा सकता, बल्कि इसके लिए राम जैसे मर्यादापूर्ण आचरण की आवश्यक होती है। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार महाराज जनक ने देश-देशांतर के बलशाली भूपतियों को स्वयंवर में आमंत्रित किया था। सभी धनुषभंग-स्पर्धा में एक-दूसरे को पछाड़ने को उद्यत थे। उसी समय दोनों भाई रंगभूमि में ऐसे प्रवेश करते हैं, जैसे तारों के मध्य चंद्रमा उपस्थित हो जाए। माता सुनयना व सखियों के मध्य धरतीपुत्री सीताजी उपस्थित हैं। वे श्रीराम को देखकर प्रमुदित हैं। प्रथम बार पुष्पवाटिका में अपलक दोनों ने एक-दूसरे को देखा था। 'रामावतार चरित' में वर्णन मिलता है कि बड़े बड़े शूरवीर राजा धनुष को तिल भर हिला नहीं सके। वस्तुत: ये सभी बलवान अवश्य थे, परंतु उनमें राम जी जैसा सदाचार नहीं था। उनका मन लोभ व काम में आकंठ डूबा था। शक्ति स्वरूपा सीता को प्राप्त करने का मार्ग स्नेह-सम्मान और श्रद्धासम्मत नहीं था, अपितु जीतने का अभिमान था। जीतकर वंदिनी बनाने की उत्कंठा थी। भला यह संभव कैसे होता, जब-जब नारी शक्ति को बल से प्राप्त करने की दुर्भावना किसी में जाग्रत हुई, परिणाम अनिष्टकारी ही हुआ। रंगभूमि में राजाओं की लज्जा से झुकी हुई ग्रीवा और मलिन मुखमंडल देख विश्वामित्र श्रीराम से कहते हैं :

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    उठहु राम भंजन भवचापा।

    मेटहुं तात जनक परितापा।।

    इतना सुनकर राम जी ने प्रणाम किया और धीरे-धीरे चलकर धनुष के समीप गये। अपनी हार से व्यथित अहंकारी राजाओं ने व्यंग्य किया- अब ये बच्चे भी चले धनुष उठाने। कुटिल व्यक्ति अपनी बात को सर्वोपरि रखने हुए दूसरे की मेधा को स्वीकार नहीं कर पाता। प्रज्ञावान अवधेश ने मन ही मन शिव का स्तवन करते हुए धनुष को उठाया। लेशमात्र बल लगाकर प्रत्यंचा तानते ही वह टूट गया। धनुष टूटने की टंकार से धरती से सागर तक कंपन हुआ। परशुराम को ज्ञात हो गया कि शिव का पिनाक खंडित हो गया। देवताओं ने पुष्पवर्षा की। मिथिला की वीथियां व मुख्य नगर फूलों की पंखुड़ियों से पट गये। दसों दिशाओं में दुंदुभि, शंख, तुरही बजने लगे। स्त्रियां मंगलगान करने लगीं। चक्रवर्ती राजा दशरथ, गुरु वशिष्ठ तथा तीनों रानियां अनेक प्रकार के आभूषण व चतुरंगिणी सेना लेकर जनकपुर पहुंचते हैं। राजा जनक समधी राजा दशरथ, गुरुदेव व रानियों का स्वागत करते हैं। पुष्य लग्न व विजय मुहूर्त में श्रीराम के साथ सीता जी का एवं श्री जनक के अनुज कुशध्वज की तीन पुत्रियों मांडवी, उर्मिला तथा श्रुतकीर्ति का विवाह क्रमश: भरत, लक्ष्मण और शत्रुध्न से आरंभ होता है। महिलाएं मंगलगीत गाती हैं। जगज्जननी माता सीता ने स्वच्छ कमलों से सुसज्जित जयमाल भगवान श्रीराम को पहनाकर परमात्मा का पतिरूप में वरण किया। प्रभु राम सियावररामचंद्र जी कहलाये। भगवान विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और प्रकृति तत्व माता सीता का मिलन अनुपम है। वे मानवोचित लीला का अंग बनकर संसारीजन को सत्य, सनातन कर्म की ओर बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। आज वैवाहिक आयोजनों में वर-वधू को राम और सीता के रूप में मानकर गाये जाने वाले मंगलगीतों का गायन सदा-सर्वदा मांगल्य का प्रतीक हैं।

    संतोष तिवारी

    आध्यात्मिक विषयों के अध्येता