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    सर्वे भवंतु सुखिन: का प्रकाश-पर्व है दीवाली, जो था श्रीराम के जीवन का दर्शन

    By Jagran NewsEdited By: Vivek Bhatnagar
    Updated: Mon, 17 Oct 2022 03:55 PM (IST)

    दीपावली के पर्व पर चारों ओर सजी दीप-पंक्तियां सामूहिक रूप से इसी भारतीय दर्शन का संदेश देती जान पड़ती हैं - सर्वे भवंतु सुखिन। वनवास से लौटने के बाद का राम का जीवन इसी दर्शन को समर्पित था...

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    यह उत्सव शौर्य एवं महान-लक्ष्य का सामूहिक रूप से स्वागत करने से भी जुड़ा हुआ है।

     डा. विजय अग्रवाल। दीपावली उत्सव भी है और पर्व भी है। उत्सव का संबंध भौतिक आमोद से है। पर्व का संबंध उसके भावनात्मक पक्ष से है, जिसे हम आध्यात्मिक स्पर्श लिया हुआ कह सकते हैं। इसमें हमें भौतिकता और आंतरिकता का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। शायद यही वह मुख्य कारण है, जिसने इसे इस देश का प्रमुख पर्व बना दिया है। ‘श्रीरामचरितमानस’ के अनुसार, यह पर्व 14 वर्ष का वनवास काटने के बाद राम के अयोध्या यानी उनकी घर-वापसी के स्वागत की स्मृति के रूप में मनाया जाता है। यह कोई सामान्य घर वापसी नहीं थी, बल्कि एक महान सामाजिक हित की पूर्ति के बाद की वापसी थी। इस ‘सामाजिक हित’ को केवल रावण वध से जोड़कर देखना इस विस्तार को अत्यंत सीमित करना है। वनवास मिलने के बाद राम ने अपनी भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की कि 'निशिचरहीन करहुं जग माहीं'। उन्होंने अपने राज्य की धरती अयोध्या को ही नहीं, बल्कि भारत से लंका तक की विस्तृत भूमि को राक्षसों से रहित कर दिया था। इस प्रकार यह एक श्रेष्ठतम कार्य संपन्न कर लौटने का दिवस है। इसलिए यह उत्सव शौर्य एवं महान-लक्ष्य का सामूहिक रूप से स्वागत करने से भी जुड़ा हुआ है। ध्यान देने की बात यह है कि राम के जीवन का यह सत्य आज भी हमारे समाज की सामूहिक चेतना में उपस्थित है। शायद इसीलिए घर से दूर जाकर व्यापार या नौकरी करने वालों की यह हर संभव कोशिश होती है कि दीपावली के दिन वे अपने घर वापस पहुंच ही जाएं।

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    अधिकतर समुदायों में दीपावली पर कोई व्रत नहीं रखा जाता। लक्ष्मी-पूजन का विधान है, जो बहुत बाद में इससे जुड़ा है। इस पर्व में व्रत-उपवास और पूजा-पाठ की नहीं, बल्कि घर की लिपाई और पुताई की प्रधानता है। यह वर्षा ऋतु के बाद की हमारी भौतिक आवश्यकता भी है। फिर यदि हमें अपने घर गए प्रिय के स्वागत के लिए स्वयं को तैयार करना है, तो क्यों न उसकी शुरुआत घर की सफाई से की जाए। नये कपड़े पहनने और मिठाइयां बनाने और खाने-खिलाने का दौर शाम को आता है। शाम को उसे राह दिखाने के लिए जलते दीपों की पंक्तियां सजाएंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमावस की अंधेरी रात जो है। भारतीय दर्शन में दीपक देह का प्रतिनिधित्व करता है। दीप का विधान ‘ऋग्वेद’ में मिलता है। दीपक देह है, तेल उसका जीवन और बाती उसकी सांस। जलता हुआ दीपक यानी जीवित मनुष्य। इस मान्यता को हमारे साहित्य, कला और लोक-जीवन में प्रमुख स्थान मिला है। दीपावली के जलते हुए दीपक हमारी आंतरिक जीवंतता को व्यक्त करते हैं। दीपक की झूमती-मदमाती लौ का स्वरूप हमारे द्वारा परिकल्पित आत्मा के स्वरूप जैसा है। इस रूप में ये दीपक आत्मा के आनंद को अभिव्यक्त करते हैं। यहां आकर दीपावली का यह ‘स्वागत समारोह’ एक आध्यात्मिक रूप भी धारण कर लेता है। दीपावली ही नहीं, बल्कि हमारे यहां की कोई भी पूजा दीपक के बिना संपन्न नहीं होती। पूजा में दीपक तो आरती में भी दीपक। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह पवित्र प्रकाश ही नहीं देता है, बल्कि यह देव के समक्ष आत्मा के उत्सर्ग के भाव को भी अभिव्यक्त करता है। इससे बड़ा समर्पण भला और क्या हो सकता है। दीपक के अर्थ का विस्तार यहीं तक सीमित नहीं है। इसके साथ हमारा क्रियापरक संबंध भी है। इसकी ज्योति की पीली आभा हमारी आत्मा को उजास से भरकर एक अलग ही प्रकार की अनुभूति कराती है। यह अनुभूति ज्ञानपरक भी होती है और पारलौकिक भी। यहां ज्योति का यह प्रकाश हमारे अंतर्मन को अज्ञानता के अंधकार से मुक्त करता है। हमें विवेकशील बनाता है। यह विवेक राम का विवेक है। साथ ही जलता हुआ दीपक एक व्यक्ति के निजी संघर्ष की महत्ता को भी अभिव्यक्त करता है। चारों ओर घनघोर अंधेरा है। हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है। दिशाओं का ज्ञान तक खो गया है। ऐसे वातावरण में यह छोटा-सा दीपक जल-जलकर उस अंधेरे की कालिमा का मुकाबला करने के लिए जूझ रहा है। तब तक जूझता रहता है, जब तक कि उसमें तेल की एक बूंद भी बची रहती है। यह दीपक सोचता है कि, 'मैं जानता हूं कि अंधेरा गहरा है। यह भी जनता हूं कि मैं अकेला इस अंधेरे को दूर नहीं कर सकूंगा, लेकिन इतना जरूर है कि कहीं दूर अंधेरे में खोये हुए व्यक्ति को दिशा-बोध तो करा ही दूंगा। इससे मेरा जलना सार्थक हो जाएगा।'

    अज्ञेय की कविता की एक अत्यंत लोकप्रिय पंक्ति है, 'यह दीपक गर्व भरा मदमाता इसे पंक्ति को दे दो।' यहां दीपक एक न रहकर अनेक में शामिल हो गया है। यह निजी व्यक्तित्व का सार्वजनिक हित के लिए समर्पण है। दीपावली के पर्व पर सजी दीप-पंक्तियां सामूहिक रूप से इसी भारतीय दर्शन का संदेश देती जान पड़ती हैं - 'सर्वे भवंतु सुखिन:'। वनवास से लौटने के बाद का राम का जीवन इसी दर्शन को समर्पित था। दीपावली का उल्लास एवं अध्यात्म से भरा यह बहुआयामी पर्व हमारे इन्हीं मूल्यों का पुनर्स्मरण कराने का पर्व है।

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