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अहिंसा के महान साधक महावीर

महावीर सहज साधक थे। राजप्रासाद छोड़कर जनसाधारण के बीच रहे और साधारण ही रहे। उनके दर्शन के तीन सिद्धांत अहिंसा अनेकांत और अपरिग्रह वर्तमान की बहुत-सी समस्याओं का निराकरण प्रस्तुत करते हैं। महावीर ने अनेकांत सिद्धांतÓ के माध्यम से शांति मानवता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की महत्ता को स्थापित किया।

By Vivek BhatnagarEdited By: Published: Wed, 13 Apr 2022 09:04 PM (IST)Updated: Wed, 13 Apr 2022 09:04 PM (IST)
अहिंसा के महान साधक महावीर
महावीर के अनुसार, परम अहिंसक वह होता है, जो संसार के सब जीवों को स्वयं के समान समझता है।

 महावीर सहज साधक थे। राजप्रासाद छोड़कर जनसाधारण के बीच रहे और साधारण ही रहे। उनके दर्शन के तीन सिद्धांत अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह वर्तमान की बहुत-सी समस्याओं का निराकरण प्रस्तुत करते हैं।

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महावीर ने 'अनेकांत सिद्धांतÓ के माध्यम से शांति, मानवता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों की महत्ता को स्थापित किया। अनेकांत सिद्धांत के अनुसार, कई प्रकार के विचारों से सत्य को जानना अनेकांत है अर्थात सत्य को पाने के लिए कोई एक विचार पर्याप्त नहीं है। अनेकांत दर्शन सभी प्रकार के विचारों व दृष्टिकोण को सम्मान देता है। महावीर ने कहा कि हमारा विचार सत्य हो सकता है, दूसरे का विचार भी सत्य हो सकता है। यह दृष्टिकोण समाज में उत्पन्न विभेद को समाप्त कर शांति का सूत्र बन जाता है। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत सत्याग्रह, व्यापकता, उदारता, सहिष्णुता, अहिंसा, एकता आदि गुण प्रकट होते हैं। भगवान महावीर ने हमें अनेकांत दृष्टि देकर वस्तु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराया है। साथ ही हमारे भीतर वैचारिक सहिष्णुता और प्राणीमात्र के प्रति सद्भाव का बीजारोपण भी किया है। यह विश्वशांति का सूत्र है। महावीर स्वामी के सर्वोदय एवं साम्यवादी सिद्धांत स्वस्थ समाज व राष्ट्र का नव-निर्माण करने को प्रेरित करते हैं।

महावीर की मूल शिक्षा अहिंसा है। जैनाचार्य अमृतचंद्र जी ने हिंसा-अहिंसा के विवेक को सूत्ररूप में रखकर उसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं कि रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है और शुद्ध भावों का अनुभव अहिंसा है।

अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।

तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेप।।

'जैन सिद्धांतÓ में कहा गया है 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसाÓ अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों को नष्ट करना हिंसा है।

महावीर के अनुसार, परम अहिंसक वह होता है, जो संसार के सब जीवों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है तथा उन्हें स्वयं के समान समझता है। 'आत्मान: प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेतÓ अर्थात दूसरे व्य1ितयों से ऐसा व्यवहार करें, जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं।

महावीर की अहिंसा की परिभाषा में मात्र जीवहत्या ही हिंसा नहीं है, बल्कि किसी के प्रति नकारात्मक सोचना भी हिंसा है।

अहिंसा के महानायक महावीर स्वामी ने जल, वृक्ष अग्नि, वायु और मिट्टी तक में जीवत्व स्वीकार किया है। उन्होंने अहिंसा की व्याख्या करते हुए जल और वनस्पति के संरक्षण का भी उद्घोष किया। उनके सिद्धांतों पर चलकर हमें 'वृक्ष बचाओ संसार बचाओÓ उ1ित को अमल में लाना होगा। प्रकृति और पर्यावरण के विरुद्ध चलने से भूकंप, सुनामी, बाढ़ आदि प्राकृतिक प्रकोपों का हमें सामना करना पड़ रहा है।

आज विश्व हिंसा के दुष्परिणाम देख रहा है। ऐसे में भी भगवान महावीर याद आते हैं, जिनका प्रमुख सूत्र वाक्य था - जियो और जीने दो। शांति के लिए इस प्रकार की अहिंसक जीवन शैली अत्यंत आवश्यक है। विश्व में आतंकवाद की समस्या का हल तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा एवं अनेकांत के सिद्धांतों में ढूंढ़ा जा सकता है। भगवान महावीर के जन्म कल्याणक हम अगााध श्रद्धा-आस्था के साथ जरूर मनाएं, पर उनके उपदेशों को अपने जीवन में भी उतारें।

राजमहल छोड़कर चुना अध्यात्म

जैन परंपरा के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व कुंडलपुर (बिहार) में राजा सिद्धार्थ एवं माता रानी त्रिशला के यहां चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को हुआ था। वे वद्र्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर के नाम से भी जाने जाते हैं। 30 वर्ष की अवस्था में राजप्रासाद छोड़कर 12 वर्षों तक वन में घोर तपश्चरण किया। तदुपरांत 30 वर्षों तक देशभर में पदविहार कर संत्रस्त मानवता के कल्याण हेतु उपदेश दिए। ईसा से 527 वर्ष पूर्व कार्तिक अमावस्या को उषाकाल में पावापुरी में उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई।

डा. सुनील जैन 'संचयÓ

जैन दर्शन के अध्येता


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