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    छोटी उम्र में ये चला रहे हैं सामाजिक बदलाव की बड़ी मुहिम

    By Jagran NewsEdited By: Brahmanand Mishra
    Updated: Fri, 30 Sep 2022 03:01 PM (IST)

    दशहरा प्रतीक है असत्य पर सत्य बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत का। इसे अच्छी तरह समझ रहे हैं देश के किशोर व युवा। आइए मिलते हैं ऐसे ही कुछ युवाओं से जो जोश एवं जज्बे के साथ छोटी उम्र से ही चला रहे हैं सामाजिक बदलाव लाने का अभियान.

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    बच्चे अपने ऊपर होने वाले जुल्म के खिलाफ तभी आवाज उठा सकते हैं, जब वे शिक्षित और जागरूक होंगे

    अंशु सिंह। दशहरा प्रतीक है असत्य पर सत्य, बुराइयों पर अच्छाइयों की जीत का। इसे अच्छी तरह समझ रहे हैं देश के किशोर व युवा। तभी तो सामाजिक बुराई रूपी रावण को हराना बन गया है इनका मिशन। आइए मिलते हैं ऐसे ही कुछ युवाओं से, जो जोश एवं जज्बे के साथ छोटी उम्र से ही चला रहे हैं सामाजिक बदलाव लाने का अभियान....

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    ‘हम दो बहनें हैं। हमारे रिश्तेदारों को लगता था कि कहीं डैडी बाडी गार्ड बनकर न रह जाएं। विडंबना यह है कि ऐसा सोच आज समाज के बहुत से परिवारों के बीच है।’ यह पीड़ा जाहिर करते हुए हरियाणा के करनाल की युवा समाजसेवी संजोली बनर्जी ने बताया कि जब वह महज पांच वर्ष की थीं, तब उन्होंने एक महिला को गर्भ में पल रही बेटी का गर्भपात कराने का दबाव सहते हुए देखा था। इस घटना का उनके बाल मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि संजोली ने छोटी आयु से ही कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी। यहां तक कि उन्होंने प्रधानमंत्री को भी इस बारे में पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर की। वह बताती हैं, ‘मैंने ठान लिया था कि मूक दर्शक बनकर नहीं रहूंगी। लड़कियों को सशक्त करूंगी। बहन अनन्या के साथ मिलकर दरार गांव में ‘सुशिक्षा’ (नि:शुल्क मोबाइल स्कूल) शुरू किया। इसके जरिये हम ग्रामीण बच्चों को साक्षर बनाने के साथ उन्हें विभिन्न कलाओं में दक्ष करते हैं। मेरा मानना है कि किसी भी बुराई पर विजय पाने के लिए शिक्षित होना सबसे जरूरी है। क्योंकि समाज में ऐसे अनेक लोग हैं, जो नहीं चाहते हैं कि लड़कियां भी लड़कों की तरह उच्च शिक्षा हासिल करें।’ वैसे, शिक्षा के अलावा संजोली समानता एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों को लेकर भी सक्रिय हैं। दस वर्ष की उम्र में ही वह ‘बेटी बचाओ, पृथ्वी बचाओ’ के नारे से साथ करीब 4500 किलोमीटर की सड़क यात्रा कर चुकी हैं। साढ़े चार सौ से अधिक पौधे लगाए हैं। इस कारण संजोली को ‘यंग ग्लोबल चेंजमेकर अवार्ड’ एवं ‘प्रिंसेज डायना अवार्ड’ से सम्मानित किया जा चुका है।

    मानसिक समस्याओं पर खुलकर हो बात

    दोस्तो, यह सही है कि समाज में कई पुरातन कुरीतियां अब भी कायम हैं। लेकिन जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का आंकड़ा कहता है कि 10 से 20 प्रतिशत बच्चे एवं किशोर मानसिक समस्याओं से जूझ रहे हैं और उनमें से अधिकतर इससे निपटने के लिए किसी प्रकार की मदद नहीं लेते हैं, तो स्थिति की गंभीरता को समझ सकते हैं। उत्तराखंड के देहरादून की अदिति जोशी ने इस मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए ही ‘स्पीकिंग ग्रे’ प्लेटफार्म की नींव रखी है। उनका उद्देश्य मानसिक समस्याओं पर समाज में एक संवाद शुरू करना है। अदिति कहती हैं, ‘मुझे लगा कि इस मुद्दे पर खुलकर बात होनी चाहिए। हालांकि शुरुआत में मुझे खुद नहीं पता था कि कैसे काम करना है? थेरेपिस्ट्स से कैसे संपर्क करना है? मैंने सोचा कि जब मेरी यह स्थिति है, तो दूसरे लोगों का क्या हाल होगा? इसलिए छह महीने तक इस विषय पर स्व-अध्ययन किया। फिर वालंटियर्स की मदद से लोगों से संपर्क करना शुरू किया। उनके बीच जनजागरूकता के कार्यक्रम किए। देश-विदेश के लोगों ने हमारे अभियान का समर्थन किया।’ अदिति की मानें, तो कोविड की वजह से पूरे विश्व के लोगों के सोच में बदलाव आया है। आज हजारों की संख्या में किशोर से लेकर युवा हमारे प्लेटफार्म एवं इंटरनेट मीडिया पेज से अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर रहे हैं। विशेषज्ञों की टीम उनकी मदद करती है। वेबसाइट पर विश्व भर के हेल्पलाइन नंबर हैं, जिन पर संपर्क किया जा सकता है।

    बच्चों को बताना होगा उनका अधिकार

    मूल रूप से बिहार के गोपालगंज की निवासी और फिलहाल पटना में रह कर स्नातक कर रहीं प्रियास्वरा भारती को बचपन से तीन कामों में गहरी रुचि रही है-फिल्म मेकिंग, फोटोग्राफी और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करना। पांच वर्ष की रही होंगी, तभी से बाल अधिकार से जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी निभानी शुरू कर दी थी। वह बताती हैं, ‘हमारे प्रदेश में बाल मजदूरी आम समस्या है। गरीब परिवारों में तो बच्चे 10 या 12 वर्ष के हुए नहीं कि उन पर कमाने का दबाव पड़ने लगता है। मैंने खुद बच्चों को कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करते देखा है। इतना ही नहीं, छोटी उम्र में लड़कियों की शादी (बाल विवाह) कराने की प्रथा भी बदस्तूर जारी है। इन तमाम घटनाओं ने मुझे बाल अधिकारों को बेहतर तरीके से जानने के लिए प्रेरित किया। मैंने यूनिसेफ के अलावा सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों के बाल अधिकार से जुड़े वर्कशाप किए। लेकिन तब मन में सवाल खड़े हुए कि आखिर बच्चों के मुद्दों पर सिर्फ बड़े ही क्यों बात करते हैं? बच्चे क्यों नहीं करते? इसके बाद ही 2018 में मैंने ‘बिहार यूथ फार चाइल्ड राइट्स’ नामक संगठन की स्थापना की।’ इस संगठन के जरिये प्रियास्वरा समाज के हर तबके के बच्चों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही हैं। इनके प्लेटफार्म पर बच्चे बेझिझक अपनी समस्याएं साझा करते हैं और उनका समाधान भी निकालते हैं। वह कहती हैं, ‘हर बच्चे को सुरक्षित माहौल में पलने-बढ़ने का अधिकार है। अपने ऊपर होने वाले जुल्म के खिलाफ तभी आवाज उठा सकते हैं, जब वे शिक्षित और जागरूक होंगे।’

    रोकनी होगी बाल विवाह की प्रथा

    राजस्थान के बिजलपुरा गांव के युवा शैलेंद्र सिंह कहते हैं, ‘बचपन में मुझे यही लगता था कि बाल विवाह एक परंपरा है, जिसे सभी को निभाना पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे वयस्क हुआ, मैंने जाना कि यह एक कुप्रथा है और गैर-कानूनी भी। आमतौर पर बच्चों को मालूम ही नहीं होता है कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। जो अभिभावकों ने कहा, उसे मानना होता है। मेरा साथ भी ऐसा ही था, जब तक कि मैंने ‘सेव द चिल्ड्रेन’ संगठन द्वारा आयोजित होने वाली कार्यशालाओं में भाग नहीं लिया। वहां जाने से मेरी आंखें खुलीं और मैंने बाल विवाह के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की।’ शैलेंद्र अब तक दर्जनों बाल विवाह को रोकने में सफल रहे हैं। इसके अलावा, कई बच्चों को बाल मजदूरी से छुटकारा दिलाकर उन्हें स्कूल तक पहुंचाया है। वह कहते हैं, ‘आज भारत विकसित राष्ट्र बनने की राह पर आगे बढ़ रहा है, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को उनका अधिकार नहीं मिल पा रहा है। ज्यादातर बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। वहीं, बहुत से बच्चों को दो वक्त का भोजन भी नसीब नहीं हो पाता। हम सभी को मिलकर इस स्थिति को बदलना होगा।’

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    नीला नदी को बचाने की मुहिम

    केरल के सरथ.के.आर कलाप्रेमी होने के साथ एक इकोवारियर हैं, जो स्थानीय ‘वयाली’ (लोककथा का संग्रह करने वाले) समूह से जुड़कर अपनी संस्कृति एवं नीला नदी के संरक्षण में जुटे हैं। इन्होंने फ्रेंड्स आफ भरथपुजा नाम से एक समूह भी बनाया है। वह कहते हैं, ‘बचपन में मैं बालू का खनन करने वाली लारियों के पीछे दौड़ा करता था, ताकि कुछ पाकेट मनी बना सकूं। यहां तक कि खनन करने वालों को पुलिस के आने की खबर भी दिया करता था। लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि अवैध रूप से होने वाले इस खनन से कैसे आम लोगों का जीवन प्रभावित होता है। नदी को नुकसान होता है सो अलग। मुझे अपनी करनी पर बहुत अफसोस हुआ, क्योंकि खनन के कारण नदी आज एक नाले का रूप ले चुकी है।’ दोस्तो, अच्छी बात यह है कि सरथ को समय रहते अपनी गलती का एहसास हो गया और उन्होंने नीला नदी एवं उसके आसपास की कला-संस्कृति को संरक्षित करने का बीड़ा उठा लिया है।