मुझे भले कई दिन तक खाने को नहीं दो, पर गाने से कभी मना नहीं करना; यही मेरी पूजा है-बतूल बेगम
राजस्थान के नागौर जिले की बतूल बेगम की कहानी यही है। मांड गायकी में उनका कोई सानी नहीं। उन्हें भजन गायकी के लिए भी खास तौर पर जानते हैं लोग। अब तक 25 से ज्यादा देशों की यात्रा कर चुकी हैं।

सीमा झा। मैं मंच पर राष्ट्रपति से पुरस्कृत होते बतूल को टकटकी लगाए देख रहा था साथ ही इस दौरान गर्व से भर उठा था कि मैं उसका पति हूं। आज उसे उसकी लगन और तपस्या का फल मिला है, इसका पूरा श्रेय उसे जाता है। कहते हैं बतूल बेगम के पति फिरोज। फिरोज के मुताबिक, उस दिन वह कई दशक पीछे चले गए। उस दौर में जब बतूल बालपन में उनके साथ ब्याह कर आईं। हम मेहनत मजदूरी कर गुजारा करते थे। छत टपकती थी, लेकिन बतूल उन दिनों में भी गाना नहीं भूलती थीं। आज हमारा परिवार खुशहाल जीवन जी रहा है।
बतूल बेगम के मन में बस संगीत बसता है। उम्र के सातवें दशक में भी सात वर्ष की बालिका सी खिलखिलाहट है उनके चेहरे पर। यह पूछने पर कि इसका राज क्या है? इस पर वह कहती हैं, मुझे भले कई दिन तक खाने को नहीं दो, पर गाने से मना कभी नहीं करना। यही मेरी पूजा है, इसी से मुझे ऊर्जा मिलती है।
बतूल बेगम कहती हैं कि मुझे जिंदगी से कभी शिकायत नहीं रही। मैं एक निम्न मध्यमर्गीय परिवार से आती हूं। नागौर जिले के केराप गांव में जहां घर मिट्टी के थे और पानी के लिए मीलों दूर चलकर जाना होता था। खेती-मजदूरी के अलावा कुछ करने को नहीं था। जब घर के कामकाज से फुर्सत मिल जाती तो अपनी सहेलियों के साथ गांव के मंदिर में या कभी शादी-ब्याह के कार्यक्रम में जाकर गाना-बजाना करती थी। इसके साथ ही रोज की दिनचर्या में भजन गायकी शामिल थी। मेरे गाने की चर्चा हर जगह होती थी।
देश की कई हिस्सों में लड़कियां बालपन में ब्याह दी जाती हैं। बतूल की भी शादी हो गयी, पर जो डर था वही हुआ। ससुराल में किसी को उनका गाना-बजाना पसंद नहीं था। बतूल के मुताबिक, वह गाए बिना नहीं रह सकती थीं। इसलिए जब कभी गांव में कोई शादी होती तो वह दबे पांव जाने का साहस जुटा लेतीं। बात कब तक छिपती। परिवार के बड़े-बुजुर्गों को पता लगा। वे जात-बिरादरी के बाहर कदम रखने से मना करते रहे, लेकिन पति को कोई शिकायत नहीं रही। वह हमेशा खुले मन से उनके साथ थे।
बतूल बेगम के अनुसार, मायके में दादा और पिता के समय से ही गाने-बजाने का दौर था। वे लोग भजन भी गाते थे। यही कारण रहा कि उन्हें देखते-देखते मुझे भी भजन गाने का शौक लगा। गांव में जब बाइस्कोप दिखाने वाले आते तो मैं झट से दौड़ जाती। शायद ही कभी यह अवसर हाथ से जाने देती थी। दरअसल, बाइस्कोप में बजने वाले पुराने गानों को सुनकर मैं अभ्यास करती थी। एक धुन का बार-बार अभ्यास करने से उसमें महारत हासिल हो जाती। हमारे पास साधन नहीं थे। बस देखते-सुनते ही सीख लिया करती। इसमें चूड़ीबाजा यानी बाइस्कोप को देखकर बड़ी मदद मिली।
बतूल कहती हैं, केवल गाने की ही नहीं, मुझे वाद्ययंत्र बजाने की भी धुन सवार थी। मैं तबला, ढोलक सब बजा लेती हूं। कौन सा भजन सबसे अधिक पसंद है आपको? यह सुनते ही वह आओ मेरे प्यारे गजानन भजन गुनगुनाने लगती हैं। बिरादरी के लोगों ने भजन गाने से मना किया, लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। बस यही कहती रहीं कि जिस भगवान ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है, उसे भजना कैसे छोड़ दूं?
उनकी आवाज का जादू विदेश तक फैला है। होली के फाग गाने वह दुनिया के कई देशों, जैसे फ्रांस, स्पेन आदि जाती हैं। सबसे अधिक पेरिस में शो किए हैं। बतूल के मुताबिक, मैं अब तक 25 से ज्यादा देशों की यात्रा कर चुकी हूं और लगभग पूरा यूरोप घूम चुकी हूं। विदेश में लोगों से कैसे बात करती हैं? इस पर बतूल अपने चिरपरिचित अंदाज में हंसते हुए कहती हैं, लोग मुझे मम्मा बुलाते हैं। जब गुड मम्मा, वेरी गुड, वेरी गुड कहते हैं तो मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता है। मुझे लगता है संवेदनाओं की भाषा एक है।
बचपन की यादों में खोते हुए वह कहती हैं कि मुझे दादा-दादी पढऩे नहीं देते थे, यह कहकर कि छोरी है पढ़कर क्या करेगी? लेकिन मैंने अपनी सहेलियों से अक्षरज्ञान लिया। मैं अखबार पढ़ लेती हूं। हालांकि मेरे तीनों बेटे पढ़ाई में अव्वल रहे। दो बेटे फ्रांस में नौकरी कर रहे हैं। वे फर्राटेदार वहां की भाषा और अंग्रेजी बोलते हैं। वे मुझे बड़े मंच पर कार्यक्रम करने में सहयोग देते हैं। एक बेटा पेरिस में प्रवासी भारतीय संस्था का कल्चरल सेक्रेटरी है।
बतूल यह कहना नहीं भूलतीं कि परिवार साथ दे तो महिलाओं को आगे बढऩे से कोई नहीं रोक सकता। नहीं साथ दे तो उन्हें अपने हुनर को इतना मांजना चाहिए कि लोग साथ देने के लिए बाध्य हो जाएं। बतूल के मुताबिक, समाज के डर से या लोग क्या कहेंगे के भय से अपने कदम पीछे न खींचे। यकीन मानें, जब आप आगे बढ़ती जाएंगी तो वही लोग एक दिन आपके साथ खड़े होंगे। वह कहती हैं, अरे, जब मैं यहां तक पहुंच सकती हूं तो कोई भी कुछ भी कर सकता है। विदेश में जाकर कार्यक्रम करती हैं। भीड़ के बीच बड़े मंच पर आने के बाद कभी डर लगा?
इस सवाल के जवाब में वह कहती हैं, मैं डरती नहीं कभी, जैसे ही प्रोग्राम करने बैठती हूं मेरा दिल खुलता जाता है और मैं इस कायनात से एकाकार हो जाती हूं। मुझे संगीत से ही यह साहस मिला है। यह साहस उनकी गायकी में बखूबी नजर आता है। वह चाहती हैं कि हर बच्चा अपनी परंपरा और संस्कृति से प्यार करे। उसे सीखे और आगे ले जाए। वह समाज के निर्धन बच्चों को संगीत की शिक्षा देती हैं। स्कूल खोलना चाहती हैं। फिलहाल घर पर ही रियाज के बाद बच्चों को बुलाकर मांड गायकी और तबला व ढोलक बजाना सिखाती हैं।
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