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    संगीत की पाठशाला में जानिए मध्यरात्रि का हृदयग्राही राग-मालगुंजी के बारे में

    राग मालगुंजी में रचे गए अधिकतर फिल्मी गीतों की मधुरता और कर्णप्रियता अद्वितीय है। व्ही. शान्ताराम की संगीतमय फिल्म झनक-झनक पायल बाजेÓ (1955) का लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार का युगल गीत नैन सो नैन नाहीं मिलाओ देखत सूरत आवत लाजÓ (संगीत वसन्त देसाई) इसी राग में हैं

    By Aarti TiwariEdited By: Updated: Sat, 08 Oct 2022 01:42 PM (IST)
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    मध्य रात्रि का हृदयग्राही राग है मालगुंजी

     यतीन्द्र मिश्र

    अयोध्य, उत्तर प्रदेश

    हिंदुस्तानी शास्त्रीय रागों के परिसर में अपने कोमल स्वभाव के लिए जिन रागों की अवधारणा हुई, उनमें राग मालगुंजी का अलग ही मुकाम है। खमाज थाट से उपजे इस राग में बागेश्री, रागेश्री और जयजयवन्ती के तत्व पाए जाते हैं। यह जानना संगीत के लिहाज से कारगर होगा कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि राग बागेश्री (कोमल गान्धार की उपस्थिति) तथा राग रागेश्री (शुद्ध गान्धार की उपस्थिति) के मिश्रण से मालगुंजी पैदा होती है, जबकि कुछ विद्वान इसे बागेश्री और खमाज का मिश्रण मानते हैं। द आक्सफोर्ड इनसाइक्लोपीडिया आफ म्युजिक आफ इंडिया भी इस बात की वकालत करती है। प्रसिद्ध संगीतकार गोविन्दराव टेम्बे यह भी रेखांकित करते हैं कि इन रागों के मिश्रण के बावजूद वस्तुत: मालगुंजी उतनी मीठी रागिनी नहीं है, जितनी स्वतंत्र रूप से बागेश्री और रागेश्री हैं। डा. गीता बनर्जी का मत है कि 'यह एक परमेल प्रवेशक राग है, क्योंकि खमाज थाट के रागों में कोमल गान्धार का अल्प प्रमाण में प्रयोग काफी थाट के रागों के आगमन की सूचना देता है।Ó

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    देर मध्यरात्रि के वक्त गाए जाने वाले इस राग को अधिकतर गवैये प्राचीन नाम 'मालगुंजरीÓ भी कहते हैं। इसकी पारंपरिक बन्दिश विलंबित लय में 'ये बन में चरावत गइयांÓ, द्रुत लय में 'रैन काहे डरावन लागी रीÓ, 'मुरली की धुन सुनी सखी री आजÓ और 'तुम मतवारो रे पियरवाÓ प्रसिद्ध हैं। फिल्म संगीत में मालगुंजी का उस तरह प्रयोग नहीं हुआ, जिस तरह भैरवी, खमाज, पीलू, बहार, पहाड़ी, झिंझोटी, मालकौंस और शिवरंजनी का होता रहा है। इसमें सबसे प्रसिद्ध व्ही. शान्ताराम की संगीतमय फिल्म 'झनक-झनक पायल बाजेÓ (1955) का लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार का युगल गीत 'नैन सो नैन नाहीं मिलाओ, देखत सूरत आवत लाजÓ (संगीत: वसन्त देसाई) रहा है। अपने जमाने का सुपरहिट ये गाना, हसरत जयपुरी ने बड़ी मुलायमियत के साथ लिखा था, जिसकी मनोरम पंक्तियों का गायन भी उतने ही सुंदर तौर पर हुआ है। इस सुंदरता में एक अलग ही मिठास और झंकार पैदा करने में जल-तरंग, सितार, वायलिन आर्गन, वाइब्रोफोन और तबला का अनोखा आर्केस्ट्रेशन भी शामिल है। यह देखने वाली बात है कि इस गीत में दोनों गान्धार (शुद्ध एवं कोमल) एवं दोनों निषाद का प्रयोग स्पष्ट रूप से खिलकर दिखाई पड़ता है। 'नैन सो नैन नाहीं मिलाओÓ की कालजयी सदाबहार रूमानियत में राग मालगुंजी असरदार तरीके से अपनी अभिव्यक्ति दिखाती है, जिसमें लता-हेमन्त के स्वरों में जलतरंग और वायलिन की अनूठी जुगलबंदी का अलग ही महत्व है।

    लता मंगेशकर ने मालगुंजी में जिन अन्य संगीतकारों के नोटेशन पर कुछ खूबसूरत गीत अदा किए और वे आज तक याद किए जाते हैं, उनमें- 'घर आजा घिर आए बदरा सांवरियाÓ (छोटे नवाब), 'बेदर्दी दगाबाज जा, तू नाहीं बलमा मोराÓ (ब्लफ मास्टर), 'उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहतेÓ (अदालत) और 'ना जिया लागे नाÓ (आनन्द) हैं। इन गीतों के स्मरण से यह बात भी उभरती है कि अपनी विशिष्ट शैलियों के लिए विख्यात आर. डी. बर्मन, कल्याणजी-आनन्दजी, मदन मोहन और सलिल चौधरी- लगभग सभी ने राग मालगुंजी का इस्तेमाल किया है। एक कम प्रचलित, मगर अत्यंत हृदयग्राही राग के रूप में मालगुंजी आपको विभोर कर देती है।