मुहावरों, कहावतों अनुभवों में गुंथी मौलिक कहानियां
कोरोना के बाद से दर्शकों की बदली पसंद को देखते हुए फिल्मकार मौलिक कहानियों की ओर बढ़ रहे हैं। आगामी दिनों में गुड बाय डाक्टर जी राम सेतु भेड़िया गणपत पार्ट 1 आदिपुरुष जैसी मौलिक कहानियों वाली फिल्में आएंगी। उनके निर्माण की चुनौतियों की पड़ताल कर रही हैं प्रियंका सिंह...
कभी किसी दक्षिण भारतीय फिल्म का हिंदी में रीमेक बनाना, कभी हालीवुड फिल्म को भारतीय दर्शकों के अनुसार ढालकर फिर से बना देना, तो कभी किसी किताब को फिल्म की शक्ल दे देना। पिछले काफी समय से सिनेमा में ऐसा कंटेंट दर्शकों के सामने ज्यादा आ रहा था, जो देखा और पढ़ा हुआ था, जिसमें ताजगी नहीं थी। ताजगी इसलिए नहीं थी, क्योंकि वह कहानियां मौलिक नहीं थी। मौलिक कहानियां अपेक्षाकृत ज्यादा मेहनत, वक्त, क्रिएटिविटी की अपेक्षा रखती हैं। कोरोना काल के बाद पिछले कुछ समय से दर्शकों के बदलते टेस्ट को देखते हुए अब फिल्मकार मौलिक कहानियों की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाले दिनों में गुड बाय, थैंक गाड, डाक्टर जी, राम सेतु, भेड़िया, एन एक्शन हीरो, गणपत पार्ट 1, किसी का भाई किसी की जान, आदिपुरुष, पठान, फाइटर, डंकी, टाइगर 3 जैसी तमाम मौलिक कहानियों वाली फिल्में दर्शकों को देखने को मिलेंगी, जो कहीं से उठाई गई नहीं, बल्कि ओरिजनल कहानी होंगी।
अब वक्त मौलिक कहानियों पर काम करने का है
पिछले दिनों दैनिक जागरण से बातचीत के दौरान निर्देशक नीरज पांडे ने कहा था कि अब वह सिर्फ मौलिक कहानियों पर ही काम करेंगे। उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि अपने प्रोडक्शन तले बनी मलयालम फिल्म इश्क की हिंदी रीमेक आपरेशन रोमियो और तमिल फिल्म विक्रम वेधा की इसी नाम से बनी रितिक रोशन और सैफ अली खान अभिनीत हिंदी फिल्म के बाद वह रीमेक्स नहीं बनाएंगे। वह अब केवल मौलिक कहानियों पर फोकस करेंगे। उनका मानना है कि रीमेक बनाना फिल्ममेकर्स के लिए आसान रास्ता बनता जा रहा है। वहीं हाल ही में ब्रह्मास्त्र फिल्म में नजर आए अभिनेता नागार्जुन मौलिक कहानियों की जरुरत को जरूरी मानते हैं। वह कहते हैं कि अब रीमेक कहानियां नहीं बनानी चाहिए। जब तक हम रीमेक बनाएंगे, तब तक लोग अगर वह मूल फिल्म तमिल या तेलुगु में है, तो उसे डिजिटल प्लेटफार्म पर देख चुके होंगे। यही बात दक्षिण भारतीय फिल्मों पर भी लागू होती है। अगर वहां पर हिंदी की रीमेक बन रही है, तो लोग मूल फिल्म को डिजिटल प्लेटफार्म पर देख चुके होंगे। मेरे हिसाब से अब वक्त मौलिक कहानियों पर काम करने का है।
मौलिक बनाना ही इस पेशे की जरुरत
निर्देशक आर बाल्की अपनी आज (23 सितंबर) रिलीज हुई फिल्म चुप : रिवेंज ऑफ द आर्टिस्ट को पिछले काफी वक्त से यही कहकर प्रमोट करते आ रहे हैं कि यह ओरिजनल कहानी है। चीनी कम, पा, की एंड का जैसी फिल्में बना चुके बाल्की ने हमेशा मौलिक कहानियों पर ही काम किया है। इसकी वजह बताते हुए वह कहते हैं कि मैं समझता हूं कि हर एक फिल्मकार की अपनी एक फिलोसॉफी होती है। मैं नई सोच को आगे लेकर जाने के लिए ही फिल्में बनाता हूं। फिल्म को समाज को कुछ वापस भी देना चाहिए। मेरे लिए ओरिजनैलिटी ही एक मात्र रास्ता है फिल्में बनाने का। अगर ओरिजनल नहीं, तो कोई फायदा नहीं, क्योंकि फिल्ममेकिंग एक लेबर वाला काम है। किसी फिल्म पर आप दो से तीन साल बिताने वाले होते हैं। ऐसे में अगर कहानी ही ओरिजनल नहीं, तो वह जुनून कहां से आएगा। मुझमें वो शक्ति नहीं की मैं किसी फिल्म की हिंदी रीमेक बनाऊं। मैं पहले से बन चुकी कहानियों की ओर आकर्षित ही नहीं होता हूं। मुझे प्रेरणा केवल ओरिजनल विचारों से मिलती है। मैंने केवल एक बायोपिक अपने करियर में बनाई है। वह भी केवल इसलिए, क्योंकि सैनेटरी नैपकिन पर कोई फिल्म नहीं बनी थी। जब मैं पैड बनाने वाले अरुणाचलम मुरुगनाथम से मिला, तो उससे वास्तविक इंसान मुझे कोई नहीं लगा। मैंने वहा भी उनकी मौलिकता को दिखाया है। दूसरी बात यह है कि मुझे लगता है कि यह मेरा काम है कि मैं कुछ नया बनाऊं। अपना बेस्ट करूं, जो किसी ने न देखा हो।
मौलिक कहानी के लिए घूमें और पढ़ें
लाल रंग और यंगिस्तान फिल्मों के निर्देशक सैयद अहमद अफजल कहते हैं कि मौलिक कहानियों पर फिल्में बनाना, उन्हें लिखना अपने आप में एक उपलब्धि है। मौलिक कहानी में जो मजा होता है, वह अडैप्टेशन में नहीं, क्योंकि मौलिक कहानियां तब तक आपसे अनजान रहती है, जब तक आप उसे देख नहीं लेते हैं। यह काम चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन अगर चुनौती नहीं होगी, तो आपकी कोशिश कैसे दिखेगी। हिंदुस्तान कहानियों का मुल्क है। इसके हर कोने, हर गली मुहल्ले में एक कहानी है। हमें बस यह करना है कि थोड़ा सा आउट आफ द वे जाकर उन कहानियों को खोजना है। उसे उन्हीं लोगों को सुनना और बनाना भी एक कला है। हमारी कई लोककहानियां हैं, जिनसे प्रेरित होकर फिल्में बनी हैं। मेरे पास एक किताब है, जो साल 1886 में प्रिंट हुई थी। उसके पीडीएफ उपलब्ध हैं। उसमें कई मुहावरे हैं। मगही और ब्रज भाषा के लोक में प्रचलित मुहावरे हैं। अंग्रेजी में ट्रांसलेशन है। मैं उसमें से जब भी एक मुहावरा पढ़ता हूं, एक कहानी निकल आती है। वह मुहावरा किसी न किसी कहानी का निचोड़ जरूर होगा। कोई कहानी हुई होगी, तभी वह मुहावरा बना होगा। ओरिजनल कहानी, आइडियाज ऐसे ही खोजे जाते हैं। निजी अनुभवों से भी कहानियां आती हैं। यह मेहनत वाला काम जरूर है, लेकिन इसके बदले जो आपको मिलता है, वह अमूल्य है। किसी की कहानी को उठाकर बना देना, उसमें कोई सुख नहीं। आर्टिस्ट्स, तकनीशियन्स, निर्देशक, लेखक इस क्षेत्र से जुड़े तमाम लोगों को यहां-वहां से कहानियां उठाने की बजाय दो चीजें करनी चाहिए, एक तो सफर करें, दूसरा पढ़ें। जब आप मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते हैं, तो वह एक कहानी ही नहीं है। वह एक तरह का आर्काइवल डॉक्यूमेंट भी है, जो प्रेमचंद छोड़ गए हैं। अगर साल 1930 के बारे में पता करना है कि समाज में कैसे होते थे, रहन-सहन, ट्रांसपोटेशन कैसा होता था, तो उनकी कहानियों में उसकी झलक है। जो कहानियां उन्होंने बताई हैं जरूरी नहीं कि आप उसे ही अडैप्ट कर लें, आप उस दौर से आसानी से वाकिफ हो सकते हैं अगर उसके आसपास कोई कहानी बुन रहे हैं। मुंशी प्रेमचंद, मंटो ऐसे तमाम डॉक्यूमेंट्स अपनी कहानियों के जरिए लिखकर छोड़ गए हैं। सलीम खान साहब इतने बड़े लेखक हैं। उनके इंटव्यू में सुना था, वह कहते हैं कि पढ़ो। एक प्रोजेक्ट के बाद जब मैं दूसरे प्रोजेक्ट की ओर बढ़ता हूं, तो लगता है कि दिमाग खाली है, मन में भावनाएं नहीं बची हैं। जितना कुछ मेरे अंदर था, वह तो पिछली कहानी पर निकाल दिया। फिर मैं अपने आप को भावनाओं से भरता हूं ट्रैवल करता हूं, पढ़ाई करता हूं। छुट्टियों पर चले जाना चाहिए, किसी पर्यटक की तरह नहीं, बल्कि रोड ट्रिप पर जहां खुद के साथ वक्त बिता सकें, पेपर-पेन साथ रखें। जैसे उत्तराखंड अगर जा रहे हैं, तो रास्ते में जो गांव आते हैं, वहा रुके। उनके घर का खाना खाएं, अलग संस्कृतियों और समाज के बारे में जानें। वहां कई लोगों में दिलचस्प किरदार दिख जाएंगे। मौलिक कहानियां इन्हीं का निचोड़ होती हैं, जो अलग-अलग जगह से आती हैं और जेहन में कहानी का रूप ले लेती हैं।
ताजा कहानियों में अपनी खुशबू
अभिनेता विनीत कुमार सिंह आगामी दिनों में फिल्म दिल है ग्रे और आधार फिल्मों में नजर आएंगे। मौलिक कहानिय़ों का हिस्सा बनने को लेकर वह कहते हैं कि बतौर अभिनेता मुझे किसी रीमेक या अडैप्टेड कहानी का हिस्सा बनने से कोई परहेज नहीं है, लेकिन करियर के शुरुआती दौर से ही मैंने ओरिजनल कहानियों में काम करने को प्राथमिकता ही दी है। जो कहानी पहले किसी ने देखी और सुनी नहीं होती है, उसकी अपनी खूशबू होती है, अपनी एक आवाज और रंग होता है। मैं ओरिजनल कहानियों को पहले नंबर पर रखता हूं, फिर अडैप्टेशन और फिल्म किसी भाषा में बनी है, जिसका हम अपनी भाषा में रूपांतरण कर रहे हैं। नंबर तीन पर रीमेक कहानी हैं, जिसे फ्रेम टू फ्रेम कापी किया जाता है। उसमें ओरिजनल के नाम पर बस यही होता है कि एक्टर और भाषा बदल जाती है, कहानी का मूलभूत ढांचा वही होता है। अब दर्शक बड़े जागरूक है। उन्हें यह समझ आ रहा है कि वह पिछले कई साल से एक ही प्रक्रिया को दोहराए जा रहे हैं। उन्होंने कोविड में दुनिया भर के कंटेंट देखे हैं। वह अपग्रेड हो गए है। उनके पास पुरानी चीजें लेकर जाएंगे, तो वह नकार देंगे। सिनेमा की क्वालिटी अपग्रेड करनी पड़ेगी। अब इंटरनेशनल सिनेमा ऐसा नहीं रहा कि वह भारतीय नहीं देख पाएंगे। वह दिन अब गए। उन्हें ओरिजनल और कहीं और से उठाई गई कहानी में अंतर करना आता है। अगर अडैप्टेशन करना भी है, तो उसमें नयापन लाना होगा। जैसे शरत चंद्र चटोपाध्याय की किताब देवदास पर कई फिल्में बनी हैं। बड़े कलाकारों ने उनमें काम किया है। लेकिन जब देव डी बनाई गई, तो उसका टेक ही अलग था। कहानी मौलिक हो या कहीं से ली गई, उसे नए तरीके से कहने की जरुरत है।
सिनेमाघरों में जाने के लिए उत्सुकता होनी चाहिए
तेलुगु फिल्म जर्सी की हिंदी रीमेक में काम कर चुकीं मृणाल ठाकुर इस बाबत अपनी राय देते हुए कहती हैं कि रीमेक का एक दौर था शायद अब दर्शकों को मौलिक कंटेंट देखना है। पहले बायोपिक्स, फिर काफी रीमेक्स बनने लगी थीं। मैं चाहती हूं कि ऐसे कंटेंट का हिस्सा बनूं जो विश्वसनीय हो, मौलिक हो, दर्शक उसे देखना पसंद करें। आजकल दक्षिण भारत और हॉलीवुड की फिल्में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है, तो वह क्यों उसे हिंदी में देखने के लिए इंतजार करें। पहले हमें ट्रेलर देखने के बाद उत्सुकता होती थी कि फलां फिल्म फर्स्ट डे फर्स्ट शो में देखनी है, लेकिन अब अगर वह किसी फिल्म की रीमेक है, तो मौलिक कंटेंट एक बटन पर उनके लिए उपलब्ध है, तो वह उसकी रीमेक जाकर क्यों देखेंगे।
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