सृष्टि का साधना का पर्व है छठ
लोकपर्व छठ के गीतों के धुन से विभोर है सबका मन। वक्त के साथ भले ही बदल गए हों छठ मनाने के पारंपरिक तौर-तरीके पर बाजार व आधुनिकता के जोर के बाद भी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की समृद्धि के प्रतीक छठ की छटा लगातार फैल रही है

सीमा झा
सृष्टि की साधना का है यह पर्व। प्रकृति के समन्वय का उत्सव है जिसमें आधुनिकता और बाजार के दबाव से आहत-आक्रांत मन को शीतल कर देने की अद्भुत शक्ति है। इस महापर्व में जीवन के लिए जरूरी ऊर्जा को संयोजित करने का संदेश छिपा है और इसलिए आज देस-परदेस में भारतीयता की पहचान बन चुका है छठ पर्व। लोकगायिका चंदन तिवारी कहती हैं, इस महापर्व में लोक की शक्ति है, प्रकृति से समन्वय का संदेश है। छठ का व्रत एक महान तप है और तप की यही शक्ति हर मानस को जोड़ देती है।
बहुत कठिन है व्रत की डगर
छठ को एक कठिन व्रत माना जाता है। लेखिका मंजूषा झा के अनुसार, किसी भी परिस्थिति में छठ से जुड़ी मान्यताओं से समझौता नहीं किया जाता है। यदि आपके मन में कोई निश्चय आ गया है तो आपको उसे पूरा करना होता है, पर कहते हैं कि डगर जरूर कठिन है, लेकिन उत्साह की शक्ति से यह आसान भी हो जाता है। मंजूषा कहती हैं, मैंने पहली बार 2012 में यह व्रत किया था। सोचा था कि बस एक बार करूंगी, लेकिन अब इतने वर्ष हो गए इसे करते हुए। आस्था की शक्ति कहूं या छठी मैया की कृपा, यह व्रत मुझे कभी कठिन नहीं लगा। इस दौरान उत्साह चरम पर रहता है और यह महापर्व कब शुरू होकर संपन्न हो जाता है, पता ही नहीं चलता। भूखे रहकर पकवान बनाना और अलग बर्तन, मिट्टी का चूल्हा इन सबका प्रयोग मन को अलग उमंग से भर देता है। गौरतलब है कि इस व्रत में पानी पीना भी वर्जित होता है। खरना के दिन भी खाने से पहले तक पानी नहीं पिया जाता है। खरना के बाद सुबह उठने से लेकर अगले दिन संध्या अर्घ्य व प्रात: अर्घ्य के बाद घर आकर पुन: पूजा पाठ करके पारण करना होता है।
आस्था के साथ स्वच्छता की शक्ति
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छता अभियान को खूब बढ़ावा दिया है, पर छठ में यह पहले से ही मौजूद है। कोरोना ने हम सभी को स्वच्छता का पाठ पढ़ाया, पर यह हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा रहा है। छठ और स्वच्छता के बारे में मंजूषा कहती हैं, हम छठ पूजा के पकवान बनाते समय अनावश्यक बातचीत भी नहीं कर सकते हैं। कारण, सभी को यह ध्यान रखना होता है कि बातचीत के दौरान मुंह से निकलीं थूक की बूंदें तक उड़कर पूजा के सामानों पर न पड़ जाएं। इसी तरह बच्चों को खास हिदायतें देनी होती हैं कि वे पूजा घर से दूर रहें ताकि सभी सामान सुरक्षित रहे, जूठे न हो जाएं। मंजूषा उन दिनों को याद करती हैं जब स्वच्छता का नियम इतना कड़ा था कि गेहूं पीसने के लिए दुधमुंहे बच्चे को मांएं स्तनपान भी नहीं करा सकती थीं। इसी तरह गेहूं को सुखाते समय चिड़ियां न उसे चुगकर जूठा कर दें, इसके लिए घंटों घर के बड़ों को डंडा लेकर पहरेदारी करनी होती थी। चक्की को गंगाजल से धोकर ही उपयोग में लाया जाता था। पिछले पंद्रह साल से दिल्ली में रह रहीं सिवान (बिहार) की रीना का इस वर्ष दूसरा छठ पर्व है। वह कहती हैं, पहली बार व्रत किया तो बस एक ही डर था कि कुछ गलत न हो जाए। नियम से सारी चीजें करनी थीं। सबसे जरूरी ध्यान स्वच्छता का ही था। जब पहली बार अच्छी तरह संपन्न हो गया तो आत्मविश्वास आया कि अब मैं भी छठ पूजा कर सकती हूं।
रहती है प्रतीक्षा
छठ पर्व की रहती है पूरे वर्ष प्रतीक्षा। वर्तमान छठ पर्व खत्म होता नहीं कि हम अगले छठ के इंतजार में होते हैं। यह कहना है मुंबई में एक निजी कंपनी में काम करने वाले अनिमेश सिंह का। अनिमेश के अनुसार, छठ ने परिवार को जोड़ने का काम किया है। हम कहीं भी रहें, छठ में घर जरूर जाते हैं। बच्चों को जड़ों से जोडऩे का अच्छा जरिया है यह पर्व। अनिमेश हर साल छठ पूजा के लिए अपने घर पटना जरूर आते हैं। छठ व्रत करने वाली उनकी सास आशा सिंह कहती हैं, बाहर रहकर बच्चे अंग्रेजी बोलते हैं। इसलिए छठ को सन पूजा कह देते हैं, लेकिन मैं खुश हूं कि वे अपनी परंपरा से जुड़ते हैं। छठ का यही संदेश है कि सब जुड़ें और सब बढ़ें। प्रकृति से जुड़कर ही यह संभव है।
अपने गांव जाने का इससे सुंदर अवसर नहीं होता। डाला-डगरा लिए जब सामूहिक रूप से घाट पर जाकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो एक अद्भुत शक्ति का एहसास होता है। कहती हैं रीना। इस बार उनका दूसरा छठ है। आशा सिंह के अनुसार, भले ही सुविधाएं बढ़ने से लोगों ने अब छठ को भी पारंपरिक रूप से थोड़ा हटकर मनाना शुरू कर दिया है, लेकिन इसका मूलभाव वही है। यह सबको एक साथ कर देता है। वह कहती हैं, पहले संयुक्त परिवार होता था तो उसकी रौनक अलग होती थी। घर की चक्की में गेहूं पीसते थे तो सब मिलकर। अब आटा पिसाने के लिए बाजार में दुकान में पंक्ति में लगकर खड़े होते हैं। घरेलू चक्की तो अब गांवों में भी कम ही घरों में होती है। गंगा घाट पर भी कम जाते हैं। छतों पर टब रखकर या आंगन में हौज बनाकर या फिर बड़े बर्तन में पानी भरकर अर्घ्य देते हैं तो क्या हुआ छठ की प्रतीक्षा सबको रहती है। यह पर्व सबके लिए है और सबसे है। वहीं, इस बारे में मंजूषा कहती हैं, समय की कमी है तो क्या हुआ बाजार में सब कुछ उपलब्ध है। घंटे भर में सामान आपके घर हाजिर हो जाता है। मिट्टी का चूल्हा नहीं तो क्या हुआ, स्टील का चूल्हा ही अब हर साल चला लेते हैं। यही नहीं अब पास-पड़ोस की मदद से मुश्किल लगने वाले काम भी आसान होने लगे हैं। गांव का समाज नहीं है, पर यहां के समाज के लोग भी गांव से ही होते हैं, जो हर बार गांव नहीं जा पाते। सब यही मानते हैं कि कैसे भी हो, बस छठ करना जरूरी है।
यह जुड़ाव कम न हो
लोकगायिका कल्पना भी छठ करती हैं। वह कहती हैं, मेरे लिए आस्था के साथ-साथ कला की अभिव्यक्ति है यह पर्व, जैसे ही यह निकट आता है मेरे पास संगीतकारों की भीड़ लग जाती है, पर अच्छा लगता है जब युवा संगीतकार आते हैं और उनके गीतों में लोक की खुशबू मिलती है। कल्पना के मुताबिक, यह छठ पर्व की ही महिमा और शक्ति है कि हर उम्र के लोग इससे जुड़ रहे हैं। युवाओं का जुडऩा एक नई कहानी कहता है। कल्पना अपना एक अनुभव बताते हुए कहती हैं, छठ पर्व से व्रती को एक खास लगाव होता है। मैंने हाल ही में एक ऐसा गाना गाया, जिसमें एक उम्रदराज महिला भगवान सूर्य से विनती करती है कि आज की सुबह देर से उगना, क्योंकि यह पल दोबारा लौटेगा नहीं, यह उनका आखिरी छठ है। दरअसल, ज्यादातर गीतों में सूर्य के जल्दी उगने की बात होती है, पर कल्पना के मुताबिक, यह गीत छठ के प्रति लगाव को बड़ी खूबसूरती से दर्शाता है, जो भावुक कर देता है। यह आस्था कभी ना खत्म होने वाली है।
आस्था के साथ न हो खिलवाड़
चंदन तिवारी, लोकगायिका
अच्छा लगता है जब दूर देश में जाकर छठ के गीत गाती हूं और लोगों को भाव विभोर पाती हूं, पर अब जब इसके गीतों को रिमिक्स कर पेश किया जाता है जिसमें मूल धुन को तोड़-मरोड़ दिया जाता है तो एक कलाकार होने के नाते कष्ट होता है। छठ हमारी संस्कृति का महान प्रतीक है। संस्कृति और परंपरा के मूलभाव को बनाए रखकर ही हम इसे अगली पीढ़ी को सौंप पाएंगे। लोगों को लगता होगा कि कुछ नया कर हमें आनंद आएगा, पर यह भी ध्यान रखना होगा कि कहीं कोई आहत ना होने पाए। मौलिकता के साथ आस्था भी बनी रहनी चाहिए।
सब जुड़ें सब बढ़ें का संदेश
कल्पना पटवारी, गायिका
मैं छठ पूजा करती हूं। शायद इसलिए इसके गीतों से खुद को एकाकार कर पाती हूं। सूर्य की उपासना ही वह बिंदु है जहां से छठ पर्व का प्रकृति से जुड़ाव स्थापित हो जाता है। प्रसाद से लेकर इसके पूजा-विधान तक सब कुछ प्रकृतिमय ही होता है। छठ की पूजा मंदिर आदि की बजाय किसी नदी या पोखरे के किनारे प्रकृति की खुली गोद में बैठकर संपन्न होती है। इस पूजा में समाज में व्याप्त ऊंच-नीच और बड़े-छोटे के सब भेदभाव मिट जाते हैं और प्रकृति की छाया में सभी मनुष्य एक समान धरातल पर खड़े नजर आते हैं।
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