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    Amrita Pritam 100th Birth Anniversary: प्रेम कहानी एक चित्रकार और लेखिका की...

    By Ruhee ParvezEdited By:
    Updated: Sat, 31 Aug 2019 01:09 PM (IST)

    अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं- मेरी सारी रचनाएं क्या कविता क्या कहानी क्या उपन्यास सब एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं।

    Amrita Pritam 100th Birth Anniversary: प्रेम कहानी एक चित्रकार और लेखिका की...

    नई दिल्ली, लाइफस्टाइल डेस्क। मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम की आज 100वीं जयंती है। इस मौके पर गूगल ने उन्हें सम्मान देते हुए एक खास डूडल अपने होमपेज पर बनाया है। 

    अपनी आत्मकथा 'रसीदी टिकट' की भूमिका में अमृता प्रीतम लिखती हैं- 'मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी, क्या उपन्यास, सब एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उसके वर्जित मेल से ये रचनाएं पैदा हुईं। एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत इनकी किस्मत है और इन्होंने सारी उम्र साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगते हैं।' 

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    अमृता और इमरोज़ का सिलसिला धीरे-धीरे ही शुरू हुआ था। अमृता ने एक चित्रकार सेठी से अपनी किताब 'आख़िरी ख़त' का कवर डिज़ाइन करने का अनुरोध किया था। सेठी ने कहा कि वो एक ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जो ये काम उनसे बेहतर तरीके से कर सकता है।

    सेठी के कहने पर अमृता ने इमरोज़ से बात की। उस ज़माने में वो उर्दू पत्रिका शमा में काम किया करते थे। इमरोज़ ने उनके कहने पर इस किताब के कवर का डिज़ाइन तैयार कर दिया।

    इमरोज़ याद करते हैं 
    ''उन्हें डिज़ाइन भी पसंद आ गया और आर्टिस्ट भी। उसके बाद मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया। हम दोनों पास ही रहते थे। मैं साउथ पटेल नगर में और वो वेस्ट पटेल नगर में।"

    "एक बार मैं यूं ही उनसे मिलने चला गया। बातों-बातों में मैंने कह दिया कि मैं आज के दिन पैदा हुआ था। गांवों में लोग पैदा तो होते हैं लेकिन उनके जन्मदिन नहीं होते। वो एक मिनट के लिए उठीं, बाहर गईं और फिर आकर वापस बैठ गईं। थोड़ी देर में एक नौकर प्लेट में केक रखकर बाहर चला गया। उन्होंने केक काट कर एक टुकड़ा मुझे दिया और एक ख़ुद लिया। ना उन्होंने हैपी बर्थडे कहा ना ही मैंने केक खाकर शुक्रिया कहा। बस एक-दूसरे को देखते रहे। आंखों से ज़रूर लग रहा था कि हम दोनों खुश हैं।''

    जब पिता ने लगाया ज़ोरदार थप्पड़
    अमृता और इमरोज़ के बीच ये तो एक शुरुआत भर थी, लेकिन इससे बरसों पहले अमृता के ज़हन में एक काल्पनिक प्रेमी मौजूद था और उसे उन्होंने राजन का नाम दिया था। अमृता ने इसी नाम को अपनी ज़िंदगी की पहली नज़्म का विषय बनाया। एक बार अमृता ने बताया था कि जब वो स्कूल में पढ़ा करती थीं तो उन्होंने एक नज़्म लिखी थी। उसे उन्होंने ये सोचकर अपनी जेब में डाल लिया कि स्कूल जाकर अपनी सहेली को सुनाएंगी।

    अमृता अपने पिता के पास कुछ पैसे मांगने गईं। उन्होंने वो पैसे उनके हाथ में न देकर उनकी जेब में डालने चाहे। उसी जेब में वो नज़्म रखी हुई थी। पिता का हाथ उस नज़्म पर पड़ा तो उन्होंने उसे निकालकर पढ़ लिया। फिर पूछा कि क्या इसे तुमने लिखा है। अमृता ने झूठ बोला कि ये नज़्म उनकी सहेली ने लिखी है। उन्होंने उस झूठ को पकड़ लिया और उसे दोबारा पढ़ा। पढ़ने के बाद पूछा कि ये राजन कौन है?

    अमृता ने कहा, कोई नहीं। उन्हें यकीन नहीं हुआ। पिता ने उन्हें ज़ोर से थप्पड़ लगाया और वो काग़ज़ फाड़ दिया। अमृता बताती हैं, ''मेरी पहली नज़्म का ये हश्र हुआ था। झूठ बोलकर अपनी नज़्म किसी और के नाम लगानी चाही थी लेकिन वो नज़्म एक चपत को साथ लिए फिर से मेरे नाम लग गई।''