सूर्यदेव का पहला उल्लेख कब हुआ? जानें उनके प्रतीकात्मक रूप और प्राचीन मंदिरों से जुड़ी रोचक बातें
सूर्यदेव का सबसे पहला उल्लेख और वर्णन ऋग्वेद में मिलता है जो दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व का है। इन प्राचीन वैदिक ग्रंथों में सूर्य को एक प्रमुख देवता के रूप में पूजा जाता था जिन्हें प्रकाश और जीवन का स्रोत माना जाता था। हालांकि उनके प्रतीकात्मक और मूर्तिकला के स्वरूपों का पूर्ण विकास गुप्त काल (तीसरी से छठी शताब्दी ईस्वी) के दौरान हुआ।

लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। ऋग्वेद और पुराणों में वर्णित सूर्यदेव हिंदू धर्म के एक प्रमुख देवता हैं, जो अनेक सौर शक्तियों और गुणों के संयोग का भी प्रतीक हैं। सूर्यदेव को तेजस्वी व प्रकाशमान देवता के रूप में चित्रित किया जाता है, जो आकाश में घोड़ों से जुते रथ में यात्रा करते हैं। सूर्यदेव के कुछ प्रारंभिक वर्णन दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास ऋग्वेद में मिलते हैं, लेकिन उनके प्रतीकात्मक रूप व मूर्तिकला में स्वरूप गुप्त काल (तीसरी से छठी शताब्दी) में पूरी तरह विकसित हुए। सूर्यदेव को मुख्यतः नवग्रहों में से एक दर्शाया गया है, जो शैव उपासना में महत्वपूर्ण हैं। वे पंचायतन पूजा में भी शामिल होते हैं, जिसमें पांच देवताओं- गणेश, विष्णु, शिव, देवी और सूर्य की आराधना की जाती है। बौद्ध समुदाय में सूर्य एक गौण देवता हैं। महाराष्ट्र के पुणे जिले में स्थित भाजा गुफाओं में सूर्यदेव को प्रमुख शिल्प-पट्ट में घोड़ों द्वारा खींचे जा रहे रथ पर विराजमान उकेरा गया है।
कई पुराणों में उल्लेख
सूर्य की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न पुराणों और कथाओं में अलग-अलग विवरण मिलते हैं। एक मान्यता के अनुसार वे अदिति के पुत्र हैं। इस रूप में सूर्य का उल्लेख महाभारत, रामायण और अनेक पुराणों के स्तुतिपाठों में प्रमुखता से होता है। ऋग्वेद के शुरुआती ग्रंथों में सूर्य को अत्यंत सुंदर पक्षी या एक दिव्य रथ पर सवार देवता के रूप में वर्णित किया गया है, जिसे सात घोड़े खींचते हैं। विशेष रूप से रथ-सवार प्रतीकात्मकता को गुप्त काल और उसके बाद की कलाओं में निरंतर अपनाया गया। इस रथ को उनका सारथी अरुण चलाता है- कभी-कभी इन सात घोड़ों की जगह एक ऐसा घोड़ा भी दर्शाया जाता है, जिसके सात सिर होते हैं। ऐसे दृश्य विशेष रूप से ओडिशा, बंगाल और बिहार की मूर्तिकला में देखने को मिलते हैं। दक्षिण-पूर्वी भारत की सूर्य-प्रतिमाओं में दोनों ओर आमतौर पर उषा और प्रत्युषा नामक देवियां खड़ी होती हैं। कुछ छवियों में सूर्य के पुत्रों को उनके समीप दिखाया गया है, जबकि कई अन्य रूपों में उन्हें नवग्रहों के बीच दिखाया गया है।
दिखता है शिल्पशास्त्र का भेद
गुप्त काल के दौरान और उसके पश्चात लिखे गए मूर्तिकला संबंधी शास्त्रों में सूर्य की प्रतिमा को एक खिले हुए कमल या रथ पर खड़े हुए दिखाने का विधान है, जिनके हाथों में दो अतिरिक्त कमल हों और सिर के चारों ओर प्रभामंडल हो- यह रूप अब उनके स्थापित मूर्तिक रूप का हिस्सा बन चुका है। उत्तर भारत की मूर्तिकला में सूर्य को प्रायः लाल त्वचा वाले देवता के रूप में दर्शाया जाता है। यह रूप शक प्रभाव और ईरानी सूर्य पूजा परंपराओं से प्रेरित माना जाता है। दक्षिण भारत की कई मूर्तियों में सूर्य को कंधे तक उठे हुए हाथों में अधखिले कमल पकड़े हुए दिखाया गया है, जबकि उत्तर भारतीय परंपरा में वे पूरी तरह खिले हुए कमलों के नीचे की ओर हैं। यह भंगिमा और वस्त्र परंपरा उत्तर और दक्षिण भारतीय शिल्पशास्त्रों के बीच के दृश्यात्मक भेद को दर्शाती है।
दिन-रात जैसा रूप
हालांकि सूर्य को सामान्यतः पुरुष रूप में दर्शाया जाता है, मगर कुछ परंपरागत शास्त्रों में उनका आधा भाग गहरे रंग की स्त्री के रूप में भी दिखाने का विधान है। यह रूपक संभवतः इस विचार से उत्पन्न हुआ है कि दिन का प्रकाश और रात के अंधकार अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं- यह द्वैत और एकता का भाव एक पौराणिक कथा में भी प्रस्तुत हुआ है। इसमें सूर्य की पत्नी संज्ञा, उनकी अत्यधिक तेजस्विता से अभिभूत होकर उन्हें अपनी छाया के साथ रहने के लिए छोड़कर चली जाती हैं। आगे चलकर संज्ञा के पिता विश्वकर्मा सूर्य की दीप्ति को कुछ कम कर देते हैं। वे उस अतिरिक्त तेज से विष्णु, शिव और कार्तिकेय जैसे देवताओं के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों की रचना करते हैं। विभिन्न मूर्तिकला संबंधी समानताओं के आधार पर, सूर्यदेव को अन्य परंपराओं के सौर देवताओं से भी जोड़ा गया है। इनमें मुख्यत: इंडो-ईरानी परंपरा के मिथ्रा और यूनानी परंपरा के हेलिओस हैं। उदाहरणस्वरूप, बिहार के बोधगया और मध्य प्रदेश के भुमरा में सूर्य की मूर्तियों में उन्हें घुंघराले बालों और टोका (जो यूनानी पोशाक के समान है) जैसे वस्त्र पहने हुए दर्शाया गया है- यह हेलिओस की छवि से साम्यता को दर्शाता है।
भव्य है मंदिरों की छवि
गुजरात का 11वीं शताब्दी का मोढेरा सूर्य मंदिर और ओडिशा का 13वीं शताब्दी का कोणार्क सूर्य मंदिर सूर्यदेव को समर्पित कुछ गिने-चुने भव्य मंदिरों में से हैं, जो आज भी सुरक्षित हैं। सूर्य के रथ संबंधी प्रतीकात्मक स्थापत्य का भव्य रूप कोणार्क सूर्य मंदिर में दिखाई देता है। इस पूरी मंदिर संरचना को एक रथ के रूप में निर्मित किया गया है। इसके मूल स्वरूप में रथ के अग्रभाग में तराशे हुए सात घोड़े और चबूतरे के किनारों पर 12 जोड़ियों में नक्काशीदार विशाल पहिए थे। ये सात घोड़े सप्ताह के सात दिनों, 12 पहिए वर्ष के 12 महीने या 12 राशियों को दर्शाते हैं।
नवग्रह और पंचायतन पूजन में उनकी उपस्थिति के अतिरिक्त, सूर्य का कई अनुष्ठानों और स्तुतियों में आह्वान किया जाता हैं। इन स्तुतियों में सबसे प्रमुख है गायत्री मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य को समर्पित है,जिसका जाप आज भी हिंदू उपासना परंपरा का केंद्रीय अंग है।
(सौजन्य- https://mapacademy.io)
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।