इंसानों की दखलअंदाजी ने बिगाड़ा मौसम का मिजाज, समय रहते नहीं संभले तो भुगतना होगा नुकसान
मौसम कुदरत ने बनाए लेकिन इससे इंसान की छेड़छाड़ ने दे दी है आफत को दावत। अब सामने आ रहे हैं ऐसे परिवर्तन कि मुश्किल होता जाएगा जीवन। डॉ. अनिल प्रकाश जोशी के अनुसार प्रकृति के नियमों के उल्लंघन से मौसम में गंभीर बदलाव आए हैं। गर्मी लगभग न के बराबर रही वसंत सूखा बीता और बारिश बेशुमार हुई। अगर हमने अपनी जीवनशैली नहीं बदली तो वापसी मुश्किल होगी।

डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, नई दिल्ली। एक दशक में अगर हम प्रकृति के व्यवहार को महसूस करें तो यह स्पष्ट है कि कुछ गंभीर बदलाव आ चुके हैं। आज यह अनुमान नहीं लगा पा रहे हैं कि हम किस मौसम को भोग रहे हैं। इस बार की गर्मी को ही देख लीजिए, जो लगभग न के बराबर रही, वसंत ऐसा सूखा बीता जिसकी आहट तक नहीं सुनाई दी और बारिश बेशुमार हुई।
यह सब इसलिए है क्योंकि हमने प्रकृति के संतुलन और उसके नियमों का उल्लंघन किया, सारी सीमाएं तोड़ दीं। परिणामस्वरूप हमने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि अब यह समझना मुश्किल हो गया है कि हम किस मौसम में जी रहे हैं। दरअसल ये हैं मानव जनित मौसम! मनुष्य ने अपने कर्मों से प्रकृति का स्वभाव बदल दिया है!
यह केवल भारत की ही समस्या नहीं है। यह बदलाव सिर्फ तापमान या ऋतु तक सीमित नहीं है। यह पारिस्थितिकी, आर्थिकी और हमारी जीवनशैली पर सीधा असर डाल रहा है। कल्पना कीजिए, अगर गर्मी अब गर्मी जैसी न लगे, ठंड में ठंड का एहसास न हो और वसंत का कोई अर्थ ही न बचे- तो यह हमारे कृषि तंत्र, जल संसाधनों और वनों तक को गहरा प्रभावित करेगा।
गुम हो रहे खुशी के दिन
हमारे यहां मौसम का संबंध केवल जलवायु से नहीं रहा, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं से भी है। उदाहरण के लिए, नवरात्र का पर्व ऋतु परिवर्तन के साथ आता है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भोजन और जीवनशैली में बदलाव का प्रतीक रहा है। इस समय शरीर को अनुकूल बनाने के लिए आहार में परिवर्तन किया जाता था। यही कारण था कि इन पर्वों का महत्व इतना अधिक था, लेकिन जब मौसम ही अनिश्चित हो जाए, तो ऐसे बदलावों का आधार कहां बचेगा?
यह स्थिति केवल भारत तक सीमित नहीं है। यूरोप में शीतकालीन कार्निवल और खेल, जो उनकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा था, अब प्रभावित हो चुका है। इंडोनेशिया के बाली में एक नया मौसम उभर आया है, जिसे ‘ट्रेश सीजन’ कहा जा रहा है। कई एशियन देशों में अब धुंध के कारण स्मोग मौसम हो गया। एक ‘लुप्त सीजन’ भी आ गया मतलब जो मौसम होना था वो अब नहीं है।
आर्थिकी पर तगड़ा असर
इन बदलावों ने हमारे आर्थिक और सामाजिक ढांचे पर भी सीधा असर डाला है। उदाहरण के लिए, जालंधर जैसे स्थानों में शीतकालीन कपड़ों की मांग में गिरावट आई है। कपड़ा उत्पादक अब शीतकालीन वस्त्रों के बजाय स्पोर्ट्स गारमेंट्स पर ध्यान दे रहे हैं। क्योंकि मौसम के ये बदलाव केवल हमारे तक सीमित नहीं रहते, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली को प्रभावित करते हैं।
अब माना जा रहा है कि साल के आठ महीने गर्मी और उमस भरे रहेंगे। बारिश कब और कहां होगी, इसका अनुमान लगाना असंभव हो जाएगा क्योंकि मानसून का पूरा तंत्र अव्यवस्थित हो चुका है। बढ़ती गर्मी समुद्रों में तूफानों को जन्म दे रही है, जो किसी भी समय बाढ़, भारी बारिश या फ्लैश फ्लड के रूप में प्रकट हो सकते हैं।
स्पष्ट है कि आने वाला समय संकटों से भरा होगा। जिन आर्थिक क्रांतियों को लेकर हमने योजनाएं बनाई थीं, वे अब इन प्राकृतिक बदलावों की मार झेलेंगी। यह संकट सिर्फ मानव समाज तक सीमित नहीं रहेगा। वन्य, जीव-जंतु, कृषि-स्वास्थ्य कार्यक्षमता सभी पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि ये बदलाव प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवजनित हैं। साफ सी बात है कि अगर हमने अब भी अपनी जीवनशैली में तुरंत और गंभीर बदलाव नहीं किए, तो हम ऐसे मोड़ पर पहुंच जाएंगे, जहां से वापसी संभव नहीं होगी।
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