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    चपाती आंदोलन ने हिला कर रख दी थी ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें, रोटी का नाम सुनते ही खौफजदा हो उठते थे अंग्रेज

    Updated: Mon, 12 Aug 2024 08:05 PM (IST)

    आजादी की राह में चपाती आंदोलन (Chapati Movement) अंग्रेजों के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया था। 1857 में जब भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा था उसी वक्त इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए लोगों को एकजुट करने के मकसद से रोटी का गजब इस्तेमाल किया गया था। आइए आपको बताते हैं इससे जुड़ी कुछ रोचक बातें।

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    Chapati Movement: क्यों रोटी से डर जाते थे अंग्रेज, बेहद दिलचस्प है कहानी

    लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। Chapati Movement In Indian History: पहली बार 1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सैन्य सर्जन डॉ. गिल्बर्ट हैडो ने चपाती आंदोलन (Chapati Movement significance) का जिक्र किया था। बता दें, कि ये आंदोलन ऐसा था जिसने ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ाकर रख दी थी (Roti Fear Among British)। उसी वक्त हैडो ने इसे जरूरी समझकर अपनी बहन को खत लिखकर इस बारे में सूचित किया था।

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    गिल्बर्ट ने अपने खत में लिखा था कि, "वर्तमान में पूरे भारत में एक रहस्यमय आंदोलन चल रहा है। वो क्या है इसके बारे में कोई नहीं जानता। उसके पीछे की वजहों को आज तक तलाशा नहीं गया है। ये कोई धार्मिक आंदोलन है या कोई गुप्त षड्यंत्र। इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता... कुछ पता है तो बस ये कि इसे ‘चपाती आंदोलन’ कहा जा रहा है।"

    आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई वैर नहीं...

    मथुरा से शुरू हुआ यह आंदोलन लोगों को क्रांतिकारियों के अगले कदम के बारे में पहले ही सूचना पहुंचाने का काम करता था। संदेश लिखी चपातियों से भरा टोकरा दूर-दूर तक भेजा जाता था, जिससे लोगों को इस बात की जानकारी मिलती थी कि आंदोलन अब शुरू हो चुका है। उस वक्त फतेहपुर के कलेक्टर रहे जेडब्ल्यू शेरर ने अपनी 'डेली लाइफ ड्यूरिंग द इंडियन म्यूटिनी' में लिखा है- चपाती आंदोलन के पीछे का उद्देश्य रहस्यमय बेचैनी का माहौल बनाना था, यह प्रयोग भारतीय आंदोलनकारियों के लिए काफी हद तक सफल रहा था।

    इस आंदोलन पर बने लोकगीतों ने भी लोगों को आजादी की लड़ाई में हिस्सा के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' अपनी मशहूर कविता 'रोटी और स्वाधीनता' में लिखते हैं कि, "आजादी रोटी नहीं, मगर दोनों में कोई वैर नहीं।"

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    रोज बांटी जाती थी रोटियां

    चपातियों को हर रात 300 किलोमीटर दूर तक ले जाया जा रहा था, मथुरा के एक मजिस्ट्रेट मार्क थॉर्नहिल की जांच में इससे जुड़ी जानकारी सामने आई थी। ऐसे में, चपातियों के इतनी बड़ी संख्या में अचानक शुरू हुए वितरण ने थॉर्नहिल को शक करने पर मजबूत कर दिया था, लेकिन जांच के बाद भी इसकी असल वजह सामने नहीं आ सकी।

    अंग्रेजों के लिए बना सिरदर्द

    मार्क की नाक के नीचे गांव-गांव घूम रही चपाती अंग्रेजों के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुकी थी। बताया जाता है कि उस दौर में चपाती को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने की यह क्षमता ब्रिटिश मेल सुविधा से भी काफी तेज थी। दिनों दिन ये मुहिम और भी ज्यादा तेज होती जा रही थी। यह रोटियां मध्य भारत से लेकर नर्मदा नदी के किनारे होते हुए नेपाल तक जा पहुंची थी। दिलचस्प बात तो ये है कि चपाती बांटने वाले भी इस बात से अंजान थे कि ये हो क्या रहा है? गांव में बस एक अंजान आदमी आता और रोटियों का बोरा थमाकर चला जाता। संदेश दिया था कि रोटियां बनाओ और दूसरे गांव पहुंचाओ।

    आंदोलन को रोकने की हुई साजिशें

    ब्रिटिश अधिकारियों को आंदोलन खत्म करने के लिए जब कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने इन रोटियों पर गाय और सुअर के खून की छींटे डालना शुरू कर दिया जिससे इसे हिंदू-मुस्लिम हाथ भी न लगाएं। साथ ही, यह अफवाह भी फैलाई गई कि आटे में सुअर का मांस मिलाकर बेचा जा रहा है। हालांकि, ब्रिटिश अधिकारियों की ऐसी सभी साजिशें नाकाम साबित हुईं।

    इस आंदोलन के बारे में ये भी कहा जाता है कि मध्य भारत में कोलेरा यानी हैजा नामक बीमारी का भयंकर प्रकोप फैला था, उसी बीच इस बीमारी से पीड़ित लोगों को मदद पहुंचाने के लिए चपाती आंदोलन का सहारा लिया गया था, लेकिन अतीत के पन्नों में इसके कोई सबूत मौजूद नहीं हैं।

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