बच्चों की लाइफस्टाइल में बदलाव से कम हो रही आंखों की रोशनी, ऐसे रखें नौनिहालों का ख्याल
इन दिनों लोगों की लाइफस्टाइल पूरी तरह से बदलने लगी है। लाइफस्टाइल में बदलाव का असर बच्चों पर भी देखने को मिलता है। यही वजह है कि इन दिनों बच्चों की आंखों की रोशनी कमजोर होती जा रही है। ऐसे में तिरुपति आई सेंटर एंवं रिसर्च इंस्टीट्यूट नोएडा की वरिष्ठ नेत्र सर्जन और चेयरपर्सन से डॉ. मोहिता शर्मा कैसे रखें बच्चों की आंखों का ख्याल।
नई दिल्ली, अवनीश मिश्र। रहन-सहन और दिनचर्या में आए बदलाव के कारण अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ी हैं और इनमें से एक समस्या आंखों से भी जुड़ी है। खासकर, बच्चों की जीवनशैली, पढ़ाई और मनोरंजन के तौर-तरीकों में आए बदलाव के कारण उनकी आंखों की रोशनी कम होने लगी है। मायोपिया यानी निकट दृष्टिदोष होने के कारण कम उम्र के बच्चों को भी चश्मा लगाने की जरूरत पड़ रही है। आमतौर पर यह समस्या आठ से 10 वर्ष के बच्चों में देखी जाती थी। इसके बाद 18 वर्ष की उम्र तक चश्मे का नंबर स्थिर हो जाता था। लेकिन, हाल के कुछ वर्षों में मायोपिया के लक्षण चार-पांच साल के बच्चों में भी दिखने लगे हैं। बहुत कम उम्र में समस्या होने के कारण चश्मे का नंबर तेजी से बढ़ने लगता है।
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आंखों को नुकसान की आशंका
चश्मे का माइनस नंबर बढ़ने से आंख की आंतरिक परत यानी रेटिना प्रभावित होती है, जो प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है। मायोपिया होने की दशा में रेटिना प्रभावित होती है। आठ से 10 प्रतिशत बच्चों में मायोपिया की वजह से रेटिना यानी आंख के पर्दे में छेद हो सकता है। इससे पर्दा अपनी जगह से हिल सकता है, जिसे रेटिनल डिटैचमेंट कहते हैं। इससे आंखों की रोशनी जाने का भी खतरा रहता है। रेटिनल डिटैचमेंट का इलाज आपरेशन के माध्यम से ही हो सकता है। इलाज के बाद भी 80 प्रतिशत ही कामयाबी मिलती है। इन 80 प्रतिशत में भी आंखों की पूरी रोशनी नहीं आती।
केरैटोकोनस बीमारी का भी जोखिम
केरैटोकोनस बीमारी के कारण भी चश्मे का नंबर माइनस हो सकता है, जिसमें आंखों की पुतली यानी कार्निया पतली और कमजोर होने लगती है। यह बीमारी बचपन या किशोरावस्था में शुरू होती है और रोशनी धीरे-धीरे कम होने लगती है। स्थिति गंभीर होने पर चश्मा लगाने के बावजूद भी पूरी तरह साफ नहीं दिखता। यहां तक कि कार्निया बदलने की नौबत आ सकती है, जिसके लिए दान की हुई कार्निया का प्रयोग किया जाता है। ऐसी परेशानियों से बचने के लिए तीन साल की उम्र से बच्चे की आंखों की जांच अनिवार्य रूप कराई जानी चाहिए। समस्या जल्द पकड़ में आने पर सही समय पर इलाज शुरू हो जाता है और बच्चे को अंधा होने से बचाया जा सकता है।
तेजी से बढ़ रहा है मायोपिया
पहले मायोपिया के मामले आठ से 10 प्रतिशत बच्चों में ही पाए जाते थे, लेकिन अब आंकड़ा 30 से 35 प्रतिशत पहुंच गया है। एक अनुमान के मुताबिक, 2050 तक 50 प्रतिशत लोग मायोपिया के शिकार हो जाएंगे। हालांकि अच्छी बात है कि मायोपिया के उपचार के लिए नए तरह के समाधान उपलब्ध हैं। दवाओं और ड्राप के माध्यम से आंखों की बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। प्रतिदिन आइ ड्राप के प्रयोग और हर तीन महीने पर आंखों की जांच की जाती है। इसका प्रयोग चश्मे का नंबर स्थिर होने तक करना पड़ सकता है। प्रति वर्ष आधा नंबर बढ़ना स्वाभाविक है, लेकिन इससे अधिक बढ़ने पर आंखों के लिए खतरनाक हो सकता है। इसके अलावा कुछ खास तरह के चश्मों से भी मायोपिया को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
जरूरी बातें
- आंखों की मांसपेशियों के कमजोर होने पर कुछ एक्सरसाइज के माध्यम से इसे बेहतर किया जा सकता है।
- बच्चे का चश्मा लगा है तो हर तीन महीने पर जांच करानी चाहिए, ताकि सही स्थिति का पता लगाया जा सके।
- बच्चों को कम से कम डेढ़ घंटे के लिए घर से बाहर खेलने के लिए प्रेरित करना चाहिए।
- लगातार स्मार्टफोन या गैजेट्स की स्क्रीन पर काम करने, गेम खेलने से आंखों की परेशानी हो सकती है, इसलिए
- आउटडोर एक्टिविटी करनी चाहिए
- स्क्रीन और पुस्तकों से दूर होने पर आंखों की मांसपेशियों को आराम मिलती है, जिससे मायोपिया को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
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