Sabudana History: कभी भूखमरी में लोगों के लिए वरदान बना था व्रत का साबूदाना, जानें इसकी अनोखी कहानी
साबूदाना (Sabudana History) व्रत में खाया जाने वाला एक लोकप्रिय फलाहार है। चैत्र नवरात्र की शुरुआत होने वाली है और इसी के साथ कई लोगों के नौ दिनों के व्रत शुरू होने वाले हैं। इस दौरान कई लोग फलाहार में साबूदाना खाते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि सबसे पहले भारत में साबूदाना कब और कैसे बना था। अगर नहीं तो आइए जानते हैं इसका दिलचस्प इतिहास।

लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। 30 मार्च से चैत्र नवरात्र की शुरुआत होने जा रही है। यह पर्व हिंदू धर्म के पवित्र और अहम पर्वों में से एक है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है और नौ दिनों का व्रत-उपवास भी रखते हैं। आमतौर पर व्रत-उपवास के दौरान लोग फलाहार करते हैं। इसमें फलों के अलावा आलू और अन्य चीजों को खाया जाता है। साबूदाना इन्हीं में से एक है।
लगभग हर तरह के व्रत-उपवास में साबूदाना खाया जाता है। यह व्रत में खाया जाने वाला एक हेल्दी ऑप्शन है, जो व्रत में इंस्टेंट एनर्जी देने के साथ-साथ आपके सेहत को भी फायदा पहुंचाता है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि फलाहार का यह लोकप्रिय ऑप्शन आखिर कब और कहां से आया। इस बारे में मशहूर सेलिब्रिटी शेफ रणवीर बरार ने अपने इंस्टाग्राम पर वीडियो शेयर कर जानकारी दी। उन्होंने बताया कैसे भारत में आया साबूदाना और क्या है इसकी कहानी-
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क्या होता साबूदाना?
साबूदाना को सागो पर्ल्स (Sago Pearl) के नाम से भी जाना जाता है। यह व्रत के दौरान भारतीय खानपान का एक मुख्य हिस्सा है, जिसे लोग कई तरह से डाइट में शामिल करते हैं। इसके बारे में रणबीर बरार ने अपने एक वीडियो में बताया कि ये छोटे, पारदर्शी मोती कसावा की जड़ से मिलते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए टैपिओका, जिसे कसावा भी कहा जाता है, की जड़ से स्टार्च निकाला जाता है और फिर इसे छोटे, गोलाकार बॉल में प्रोसेस करके सुखाया जाता है।
कहां से आया साबूदाना?
भारतीय खानपान में साबूदाने की एंट्री 1800 के दशक में देश के दक्षिणी भाग, विशेष रूप से केरल से हुई। दरअसल, उस दौरान जब त्रावणकोर राज्य अकाल से जूझ रहा था। यहां भूख की वजह से लोगों की जान जा रही थी, जिससे चिंचित होकर वहां के शासक अयिलयम थिरुनल राम वर्मा और उनके भाई विशाखम थिरुनल ने टैपिओका का पता लगाया और इसकी मदद से लोगों की भूख मिटाने की कोशिश की।
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शुरू में इस क्षेत्र के लोग इसके जहरीले होने के डर के कारण इसे लेकर चिंता में थे, लेकिन फिर विशाखम ने साफ करने और उबालने की एक सावधानीपूर्वक प्रक्रिया की मदद से साबूदाने को तैयार किया। आखिरकार लोगों को इसका विश्वास हासिल हुई और इसे कप्पा के नाम से जाना जाने लगा और यह लोगों की भूख मिटाने में कारगर रहा।
चावल की कमी का बना ऑप्शन
इतना ही नहीं युद्ध के समय में भी साबूदाना काफी अहम भूमिका निभाई। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब चावल की कमी होने लगी थी, तो टैपिओका ने कई राज्यों के लोगों को बचाया था। यह चावल की कमी के बीच पेट भरने के सस्ते विकल्प के रूप में लोकप्रिय हो गया था। वर्तमान में इसे कई तरह से लोग अपनी डाइट में शामिल करते हैं। खासतौर पर व्रत के दौरान यह पौष्टिक भोजन साबित होगा है।
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