Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    Mahakumbh 2025: इस बार का महाकुंभ क्यों है इतना खास? हैरान कर देंगी इससे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें

    Updated: Sun, 12 Jan 2025 12:00 AM (IST)

    13 जनवरी से प्रयागराज में विश्व के सबसे बड़े धार्मिक और आध्यात्मिक समागम Mahakumbh 2025 का आयोजन हो रहा है। 144 वर्षों में पहली बार यह अद्भुत संयोग बना है जब महाकुंभ अमृत स्नान के शुभ अवसर पर है। गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती की त्रिवेणी में लाखों श्रद्धालु पवित्र स्नान करेंगे। आइए डॉ. धनंजय चोपड़ा से महाकुंभ की ऐतिहासिकता धार्मिक महत्व और सांस्कृतिक विरासत के बारे में जानें।

    Hero Image
    Mahakumbh 2025: क्या बनाता है इस बार के महाकुंभ को इतना खास? (Image Source: Jagran)

    डॉ. धनंजय चोपड़ा, नई दिल्ली। Mahakumbh 2025: कुंभ मेला शताब्दियों से अनवरत चली आ रही उस सांस्कृतिक यात्रा का पड़ाव है, जिसमें नदियां हैं, कथाएं हैं, मिथक हैं, अनुष्ठान हैं, संस्कार हैं, सरोकार हैं और शामिल हैं हमारी अनगिनत आध्यात्मिक और सामाजिक चेतनाएं, जिनके बलबूते हम अपनी परंपराओं को बखूबी निभाते हुए अपनी बनावट और मंजावट करते आए हैं। अथक प्रवाहमान इस यात्रा में नदियों की आवाजें भी शामिल हैं, जिन्हें सुनने स्वयं कुंभ आता है तो कुंभ में शामिल होने का स्वप्न संजोए लाखों-करोड़ों लोग भी।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    इस अद्भुत, अप्रतिम, अलौकिक यात्रा में शामिल होता है 12 वर्ष का इंतजार, पवित्र नदियों के पुण्य तट, नक्षत्रों की विशेष स्थिति, विशेष स्नान पर्वों की धमक, साधु-संतों की जुटान, धर्म आकाश के सभी सितारे और उनका वैभव, कल्पवासियों की आकांक्षाएं और देखते ही देखते दुनिया के सबसे बड़े अस्थायी नगर का बस जाना...

    12 बरस के बाद आने वाले अपने हर पड़ाव पर यह यात्रा लोकोत्सव में बदल जाती है, जिसमें भारतीय संस्कृति कुलांचे भरती, अठखेलियां करती पूरे विश्व को स्वयं में समाहित कर लेने की ताकत दिखा देती है। सच तो यह कि इस लोकोत्सव में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भारतीय अवधारणा सहजता से चरितार्थ होती है।

    सनातन गर्व का महापर्व

    वास्तव में भारतीय संस्कृति की अवधारणा में ही सामूहिकता निहित है। हमने प्रारंभ से ही विश्व को एक कुटुंब की तरह मानकर स्वयं को प्रस्तुत किया है। हमारी सभी सांस्कृतिक चेतनाओं में समूह पहले आता है, फिर व्यक्ति। यही वजह है कि कुंभ जैसे आयोजन केवल देश को ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को अपने भीतर सहेज लेने का सामर्थ्य रखते हैं। यही वजह है कि किसी भी कुंभ मेले में पग-पग पर संस्कृतियां अपनी पूरी रौ में चमकती-दमकती मिल जाती हैं।

    इसी चमक-दमक के आलोक में ही तो हम पीढ़ियों को बनाने और मांजने का दायित्व निभाते हैं। देश के दूर-दराज के स्थानों से कुंभ मेले में अपने-अपने समूहों में पहुंचते लोगों के पास अपनी संस्कृति की ऐसी पूंजी होती है, जिसमें सब गुंथे-बिंधे रहते हैं। एक ऐसी डोर से जिसको टूटना नहीं आता, केवल जोड़ना आता है। गाते-बजाते-नाचते-बतियाते इन समूहों में भारतीयता की उस चेतना के दर्शन हो जाते हैं, जिनके सहारे हम पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोते आए हैं।

    यह भी पढ़ें- क्यों 12 साल बाद लगता है महाकुंभ, कैसे तय होती है इसकी डेट?

    तो क्या हम यह नहीं मान सकते कि सामूहिक संस्कृति का हिस्सा बनने और उसे निभाते रहने की सीख देने वाली पाठशाला की तरह होते हैं हमारे ये कुंभ मेले। सच तो यही है कि हम इन मेलों से बहुत कुछ ऐसा बड़ी ही सहजता से पा जाते हैं, जिसे देने की जुगत में बहुत से विश्वविद्यालय पीछे छूट जाते हैं। कह सकते हैं कि कुंभ मेले हमारी सांस्कृतिक सामूहिकता को समझने व उससे जुड़ने के मुक्त विश्वविद्यालय होते हैं।

    परंपरा और आस्था की झलक

    यह अनायास नहीं है कि यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने 2017 में कुंभ मेला को ‘मानवता की अर्मूत सांस्कृतिक विरासत’ की सूची में शामिल कर लिया है। सच यही है कि कुंभ मेला में पहुंचे बहुतेरे लोग किसी लोक कलाकार से कम नहीं होते। हर किसी को अपनी विरासत में बहुत कुछ ऐसा मिला होता है, जो खुशियों के कुंभ के रूप में यहां फूट पड़ता है।

    कह तो यह भी सकते हैं कि यहां पहुंचते ही विरासत में मिलीं संस्कृतियां बिखर जाती हैं, अन्य लोक-संस्कृतियों के साथ मिलकर किलोल करने, अठखेलियां करने के लिए। और, सब के सब बहुरंगी लोकरंग में झूम उठते हैं। अपनी-अपनी बोली-बानी में लोकगीतों के स्वरों को एक लय-ताल में बह जाने देते हैं लोग।

    कोई किसी की लय में झूमता नजर आता है तो कोई किसी की धुन गुनगुनाता मिल जाता है। कभी संगम की रेती पर विदेश से पहुंचे लोगों को गाते-नाचते देखिए तो यह मत समझिएगा कि वे नदी के तट पर किसी इंटरनेट मीडिया पर अपलोड करने के लिए कोई वीडियो शूट कर रहे हैं, बल्कि यह अनुभव करिएगा कि वे अपनी सुर-लय-ताल को हमारी सामूहिक संस्कृति की विरासत का हिस्सा बनाना चाहते हैं। ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूं कि मैंने देखा है कुंभ में पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण का भेद मिटते हुए। और, यही वह बात है जो कुंभ को वैश्विक बनाती है।

    साथ जाएगी परंपरा की थाती

    इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश-दुनिया के लोग अपने रहन-सहन, सोच-विचार, रीति-रिवाज, संस्कार-सरोकार, आचार-व्यवहार की भरी-पूरी थाती लेकर कुंभ मेले में शामिल होने आते हैं और यहां उसमें से बहुत कुछ बांटकर जगह बनाते हैं, ताकि उसमें यहां से कुछ नया सहेजकर ले जा सकें। यही तो है स्वयं को नया कर लेने की जुगत।

    कुंभ मेला कल्पवास के रूप में हमें अपनी आध्यात्मिक, सामाजिक, मानसिक और शारीरिक चेतनाओं को तरोताजा करने की सांस्कृतिक प्रयोगशाला उपलब्ध कराता है। मैंने देखा है इन प्रयोगशालाओं में नए गीतों, नए आख्यानों, नई कथाओं और नए रूपकों को गढ़े जाते हुए, प्रस्तुत होते हुए और फिर पीछे आ रही पीढ़ियों के लिए सहेजे जाते हुए। आज जब हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स और चिप कम्युनिकेशन जैसी तकनीकों की गिरफ्त में आते जा रहे हैं, तब अपनी प्रकृति, अपनी संस्कृति, अपनी परंपराओं और अपनों के साथ नातेदारी बनाने को प्रेरित करते कुंभ मेले बहुत जरूरी जान पड़ते हैं।

    यह सही है कि वास्तविक कुंभ मेलों के साथ-साथ वर्चुअल कुंभ मेले भी विस्तार पा रहे हैं, लेकिन हमारी सांस्कृतिक यात्रा के अप्रतिम पड़ाव के रूप में साथ निभाते आ रहे ये मेले हमें यह भी सिखाते हैं कि किस तरह तकनीक को हाशिए पर धकेले बिना हम अपनी परंपराओं, संस्कारों और सरोकारों से जुड़े रह सकते हैं और निरंतर उनको मजबूत कर सकते हैं।

    यह तो तय है कि 21वीं सदी के 25 वें वर्ष में प्रयागराज महाकुंभ मेला हमारी भारतीय संस्कृति और तकनीक के बीच की जुगलबंदी को नए आयाम देगा। हमारी यह सदियों पुरानी सांस्कृतिक यात्रा एक नई आभा के साथ अगले पड़ाव की ओर बढ़ चलेगी!

    ('भारत में कुंभ' पुस्तक के लेखक)

    यह भी पढ़ें- कुंभ मेला में क्यों किया जाता है कल्पवास, क्या है इसके पीछे का कारण?