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    Ganesh Utsav 2025: लोकमान्य तिलक ने किया था राष्ट्रवाद का श्रीगणेश, 132 वर्षों बाद भी बरकरार है परंपरा

    गणपति को महान आदर्श के रूप में देखते हुए राष्ट्रीय स्वाभिमान की जागृति के लिए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की नींव रखी। डॉ. मुरलीधर चांदनीवाला मानते हैं कि जैसे-जैसे इस उत्सव की धूम महाराष्ट्र से पूरे भारत में फैलती गई वैसे-वैसे युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना मजबूत होती गई।

    By Jagran News Edited By: Swati Sharma Updated: Mon, 25 Aug 2025 07:50 AM (IST)
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    बाल गंगाधर तिलक ने की थी गणेश उत्सव मनाने की शुरुआत (Picture Courtesy: Instagram)

    लाइफस्टाइल डेस्क, नई दिल्ली। वर्ष 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणेशोत्सव की नींव रखी। धार्मिक आयोजन के रूप में गणेशोत्सव मनाने की परंपरा गांव-गांव और शहर-शहर में बहुत पहले से चली आ रही थी, लेकिन जब हमारे देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए युवाओं के संगठन की आवश्यकता महसूस हुई, तब तिलक जी को गणपति बप्पा से बड़ा कोई पुरोधा नहीं मिला।

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    तिलक जी ने गणेशोत्सव मनाने की जो राष्ट्रीय परंपरा एक बार डाल दी, वह 132 वर्ष पूरे होने के बाद भी चल रही है। वे गणों के स्वामी हैं, व्रातपति हैं, समूह के देवता हैं, इसलिए समूह से प्यार करते है। गणेश जी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे व्यक्ति की अपेक्षा समूह की गतिविधियों में रुचि लेते हैं। इसी कारण वे सच्चे लोकदेवता हैं।

    प्राचीन मिथकों में गणेश जी ज्ञान और विवेक, बल-बुद्धि, ऋत और सत्य के देवता हैं। एक वही हैं, जो युवाओं के विशिष्ट नायक होने के कारण ही विनायक कहे जाते हैं। दक्षिण भारत में गणेश जी श्रम के देवता माने गए। दक्षिण भारतीयों का विश्वास है कि श्रम करने वालों की पीठ पर गणेश जी अपना हाथ रखते हैं।

    गाणपत्य संप्रदाय वाले श्रम की पूंजी को ही धर्म की पूंजी घोषित करते हैं। उनकी मान्यता है कि श्रम करने वालों के लिए गणेश जी भविष्य के द्वार खोल देते हैं। राष्ट्र के विकास का आधार मनुष्य के श्रम की पूंजी ही है, इसीलिए तिलक ने गणेश जी को राष्ट्र का आराध्य बनाया। विघ्नहर्ता गणेश जी उन सभी को सुहाते है जो कर्म में जुते हुए हैं और अपने मानस में श्रद्धा और विश्वास को स्थापित कर निर्भय हो जाना चाहते हैं।

    गणपति होते थे अध्यक्ष

    आज भारत स्वाधीन है, युवाओं के शौर्य और बलिदान के कारण। तिलक यह अच्छी तरह जान चुके थे कि केवल अतीत के गौरवगान से कुछ भी हासिल नहीं होगा। जब तक सभ्य और शिक्षित युवाओं का मजबूत संगठन उठ खड़ा नहीं होगा, क्रांति का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता। वे यह भी जानते थे कि भारतीय युवाओं में जो सांस्कृतिक चेतना सोई पड़ी है, उसे जगाए बिना युवा-संगठन की बात सोची भी नहीं जा सकती। उस दौर में गणेशोत्सव का जो स्वरूप था, वह आज से बिल्कुल भिन्न था।

    गणेश जी की बड़ी-बड़ी मूर्तियों की स्थापना का प्रचलन नहीं था। मूर्तियां बहुत छोटी होती थीं। हाथ से बनी हुई मिट्टी की मूर्ति में विधिवत प्राण-प्रतिष्ठा कर उसे पवित्र स्थान पर स्थापित किया जाता था। 10 दिनों तक वहां अखंड दीप प्रज्वलित रहता था, आरती-नैवेद्य होता था। पारंपरिक गणेश-अथर्वशीर्ष के सहस्रावर्तन की आवृत्तियों के लिए बटुकों के समूह एकत्रित होते थे। गणेशोत्सव का सभामंडप राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं से भरा होता था।

    आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन दिनों गणेश जी की अध्यक्षता में वैचारिक सभाएं होती थीं, राष्ट्रवादी विचारपत्र बांटे जाते थे। संगीत सभा, नृत्य-महोत्सव, शिवाजी की वीर गाथाओं से भरे हुए नाट्य-प्रदर्शनों के अतिरिक्त आध्यात्मिक चर्चाएं भी होती थीं। शारीरिक शक्ति प्रदर्शन भी खूब होते थे। युवाओं में जोश भरने वाली रचनाएं सुनाकर गीतकार और कवि अपने युग का नमक अदा करते थे। 10 दिनों तक चलने वाला यह आयोजन किसी बड़े राष्ट्रीय महोत्सव की तरह होता था, जिसमें युवाओं के पीछे-पीछे बच्चे-बूढ़े उमड़ते चले आते थे।

    राष्ट्रीय उत्सव दिखाएगा राह

    युवा-चेतना में ओज और उल्लास की तरंगें सहज ही हिलोरें लेती हैं। वह उत्सवधर्मी भी होती है और अपने युग को अलंकृत करते रहने की इच्छा से भी भरी होती हैं। गणेशोत्सव की समूची परंपरा को अब तक युवा पीढ़ी ही अपने कंधे पर उठाकर यहां तक लेकर आई हैं। युवाओं की उमंग और उत्साह देखते ही बनता है। बस, इन्हें थोड़ा सा उचित मार्गदर्शन मिले, तो गणेशोत्सव को राष्ट्रीय उत्सव होने का सच्चा स्वरूप मिल जाए। एक यही उत्सव है, जो एक साथ लोक पर्व है, सांस्कृतिक और सामाजिक सम्मेलन है, संगठन का अवसर है। गणपति से अच्छा शुभंकर कोई हो भी नहीं सकता। वे मंगलकर्ता हैं उनके लिए, जो सत्य के आग्रही हैं।

    सच्चे मन से करो पुकार

    आज हमें फिर वैसा ही गणेशोत्सव चाहिए, जिसमें विचारशील युवाओं का नेतृत्व हो। युवा-संस्कृति ही भारत-चिंतन की जननी है। पूंजीवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए वेदों में जिस गणपति का जिक्र आया है, उस पर जमी धूल को हटाया जाना आज की जरूरत है। गणेश जी शुरू से ही गणतंत्र की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर खड़े हुए हैं, इसलिए गणतांत्रिक मूल्यों को लोकव्यापी बनाने के लिए समर्थ युवाओं के समूह को आगे लाना होगा।

    इसके लिए गणेशोत्सव से बेहतर कोई प्लेटफार्म नहीं मिल सकता, किंतु शर्त यह भी है कि ये समूह गैर-राजनीतिक हों और राष्ट्रवाद पर भरोसा रखते हों। आज परिस्थितियां पहले जैसी ही विषम हैं, अंधेरा पहले जैसा ही घना है, दुख और दुर्भाग्य के बादल उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। सच्चे मन से गणपति को बुला लीजिए। वे तत्काल आते हैं, उत्सव में बदल जाता है सब कुछ, जैसा आप चाहते हैं।

    हर यात्रा के साक्षी

    आर्यों की संघर्षशील यात्रा का जो इतिहास है, उसके साक्षी गणेश जी ही हैं। वे एकदंत और वक्रतुंड हैं, पाश और अंकुश धारण करने वाले हैं, मूषकध्वज हैं, शूर्पकर्ण हैं, लंबोदर हैं, लाल वस्त्र पहने हुए हैं, लाल चंदन से लिप्त हैं और लाल रंग के फूलों से पूजित हैं। गणेश जी का जो अभिराम स्वरूप हमारे सामने है, वह पांचवीं-छठी शताब्दी में भी ऐसा ही था।

    इससे पहले बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विघ्नेश और विरूप नायक के रूप में उनकी जो विकराल छवि थी, उसे हमने बौद्ध धर्म के अस्त हो जाने के बाद सुखकर्ता व विघ्नहर्ता के रूप में ढाल कर स्वीकार किया। इसमें गणपति की पुरातन और पौराणिक छवियां भी मिलकर एकाकार हो गई हैं।

    समान शुभ-लाभ के दाता

    गणेश जी उस संगठित समाज के सूत्रधार हैं, जो जातिभेद, लिंगभेद, वर्गभेद और वर्ण व्यवस्था से ऊपर है। तभी तो गणपति ‘समान शुभ-समान लाभ’ का विचार फैलाने के कारण सबके आराध्य हैं। उनका पेट बहुत बड़ा है, इसलिए वे सब छोटी-मोटी बातें पचा जाते हैं। कान सूप की तरह इसलिए हैं, क्योंकि वे सार-सार को ग्रहण करते हैं और थोथी बातों को हवा में उड़ा देते हैं। उनके हाथों में पाश और अंकुश शोभा के लिए नहीं, उन दुर्जनों के लिए है, जो समाज की तोड़-फोड़ में लगे रहते हैं।

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