बेशकीमती चमड़े की कीमत चुका रही प्रकृति, फैशन के नाम पर बलिदान हो रहे बेजुबान
फैशन की दुनिया में जानवरों से बने महंगे कपड़े और एससेरीज बहुत बिकते हैं जिनके लिए बेजुबान जानवरों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। इतना ही नहीं फैशन के लिए जंगलों को भी काटा जा रहा है जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। World Wildlife Day (विश्व वन्यजीव दिवस) के मौके पर डॉ. अनिल प्रकाश जोशी ने फैशन और प्रकृति के इस गंभीर मुद्दे पर अपनी बात रखी है।

डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, नई दिल्ली। फैशन के मामले में सबसे अलग दिखने की चाह में हर कोई रहता है, मगर एक नजर इन मासूम बेजुबानों पर भी डालें, जो इंसानों के शौक के लिए बलिदान हो रहे हैं। फर और लेदर के जैकेट जंचते अवश्य हैं, मगर इन मुलायम कोट में उस चीख को महसूस कीजिए, जो उस जीव के मुंह से तब निकली होगी, जब इसे तैयार करने के लिए उनका शिकार किया गया या क्रूरता के साथ पाल-पोसकर निर्ममता से उनकी खाल, नाखून और बालों को नोचा गया होगा।
3 मार्च को हम एक बार फिर विश्व वन्यजीव दिवस मनाएंगे और अगले दिन फिर लेदर का बैग उठाए आफिस या किसी पार्टी में निकल जाएंगे। 1973 के बाद से हर वर्ष यह दिवस इसलिए मनाया जाता है ताकि हम वन्य जीवों तथा पेड़- पौधों के प्रति भी गंभीरता बरतें और यह समझें कि पृथ्वी पर केवल मनुष्य ही नहीं, अन्य जीव भी बसते हैं। इस मुहिम के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट है कि अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हम किसी न किसी रूप में इन पर प्रहार करते आ रहे हैं और इनके लिए घातक सिद्ध हुए हैं। अब फैशन के पीछे भागते हुए हम मानसिक रूप से इतने विकृत हो चुके हैं कि शरीर को सुंदर दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
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रोज टूट रहे क्रूरता के पैमाने
इस फैशन की शुरुआत तो सदियों पहले ही हो गई थी, लेकिन इसे विधिवत रूप से 1747 में फैशन का नाम मिला, जब फ्रांस की एक दर्जी रोज बर्टिन ने वहां की रानी के लिए अलग-अलग डिजाइनों के वस्त्र तैयार किए। इसके बाद इस फैशन ने जोर पकड़ा और 1900 तक यह प्रमुख व्यवसाय के रूप में स्थापित हो गया। फैशन तब तक ठीक है, जब तक यह हमारी सरल आवश्यकताओं व संसाधनों तक सीमित रहे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज प्रकृति के लिए फांस बन रहा फैशन दूसरे जीवों के बाद अंततः हमारे ही गले पड़ेगा। फैशन के दीवाने व मतवाले स्वयं को बेहतर दिखाने और समाज में अलग पहचान बनाने के लिए बेहिचक वन्यजीवों की बलि चढ़ा रहे हैं। यह प्रक्रिया इतनी क्रूर हो चुकी है कि आज दुनिया में कई जीवों जैसे सांप, घड़ियाल, विभिन्न प्रजाति की छिपकलियों का केवल इसलिए पालन हो रहा है ताकि उनकी खालों से हम अपना शरीर सजा सकें।
स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि जंगलों से इन जीवों की अगली पीढ़ियों को पकड़कर उनकी खेती की जा रही है। उदाहरण के लिए, जंगली घड़ियाल के अंडे उठाकर इनकी नई पीढ़ी की फार्मिंग की जा रही है। यह और भी अजीब है कि इस उद्योग को कानूनी वैधता भी दी जा चुकी है। उदाहरण के लिए, फ्लोरिडा में एलीगेटर फार्मिंग की अनुमति है, जहां लोग जंगलों से उनके अंडे इकट्ठा करके उन्हें पालते हैं। यह सीधा-सीधा एलीगेटर की आबादी और उनके प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित कर रहा है। इंसानों की क्रूरता का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि फैशन इंडस्ट्री में सांपों के जिंदा रहते हुए उनकी खाल में हवा भरकर बैलून बनाकर उनकी खाल की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है। फिर पालने की विधि भी इतनी क्रूर है, जिसे अस्वेदना का चरम कहा जा सकता है।
दोतरफा घायल हो रही प्रकृति
हम जीवों के शरीर से बनने वाले कपड़ों के चयन के कारण पाप के भागीदार तो बन ही रहे हैं, पर साथ में प्रकृति के दोषी भी बन चुके हैं। फैशन इंडस्ट्री इस तरह न केवल जानवरों पर अत्याचार कर रही है, बल्कि उनके पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को भी नष्ट कर रही है। चीन और मंगोलिया में भेड़ से ऊन प्राप्त करने का व्यापार बहुत बड़ा उद्योग बन चुका है। इन भेड़ों को पालने के लिए जंगलों को काटा जा रहा है, जिससे कई वनस्पतियां और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो चुके हैं। दूसरी ओर, तीन दशकों में अमेरिका में सूती कपड़ों की मांग में भारी गिरावट आई है और इसके स्थान पर पालिएस्टर, ऐक्रेलिक और नायलान जैसे सिंथेटिक कपड़ों की मांग तेजी से बढ़ी है। ये कपड़े सड़-गलकर माइक्रोप्लास्टिक के रूप में हमारी भोजन शृंखला का हिस्सा बन रहे हैं, जो पहले ही स्वास्थ्य प्रदूषण का एक बड़ा कारण बन चुका है। फिर कपड़ों का अति उत्पादन रसायनों के उपयोगों को भी बढ़ावा देता है, जिसका सीधा और प्रतिकूल असर मिट्टी, जल और जीवों पर पड़ रहा है।
असफल रहेंगे विशेष दिवस
कई जगहों पर वन्यजीवों को पालकर उनके इस तरह के उपयोग को वैधता देने की कोशिश की जा रही है ताकि कानूनी प्रतिबंधों से बचा जा सके। इससे कई दुर्लभ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर गंभीर चर्चाएं हो तो रही हैं, मगर परिणाम प्रभावी नहीं कहे जा सकते। भारत में भी फैशन व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन हमें यह सोचना होगा कि क्या पृथ्वी केवल मनुष्यों के लिए बनी है? क्या वन्य जीवों तथा पेड़-पौधों का इस पर कोई अधिकार नहीं है? यह तो स्पष्ट है कि हम प्रकृति के विरुद्ध जा रहे हैं। जितना अधिक कपड़ों की मांग होगी और उसमें साथ में ऐसे कपड़ों की भी, जो वन्य जीवों से बनते हैं, उतना ही अधिक हम पर्यावरण संरक्षण में असफल रहेंगे। तीन मार्च हर वर्ष आएगा, लेकिन अगर हमने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला तो इसका परिणाम घातक होगा।
(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)
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