आन्दोलन व बलिदान की कर्मभूमी है भोगनाडीह
पवन गुप्ता, बोरियो
सिद्धो कान्हु के बलिदान व अंग्रेजों व महाजनों के शोषण के खिलाफ आन्दोलन व बलिदान की कर्मभूमी है भोगनाडीह। सिदो कान्हू जयंती शहादत की यादों को ताजा कर देती है। सिद्धो कान्हू की जयंती को लेकर जिला प्रशासन ने तैयारी पूरी कर ली है। आदिवासी समाज के लोगों को शोषण व अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए सिद्धो कान्हू ने संथाल हूल का शंखनाद किया था। आदिवासी समाज के लोग उन्हें किसी भगवान से कम नही मानते।
सिद्धो कान्हू ने आदिवासी तथा गैर आदिवासियों को अंग्रेज व महाजनों के अत्याचार से आजाद करने में अहम भूमिका निभायी। ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों को तार-तार करने वाले इन वीर सपूतों के शहादत की याद में जयंती समारोह प्रत्येक साल 11 अप्रैल को मनाया जाता है। जयंती समारोह में भोगनाडीह पहुंचने वाले देश के कई प्रातों से विद्वान, लेखक, इतिहासकार पहुंचते हैं और शहीदों के इतिहास को कुरेद कर जीवन वृतांत पर प्रकाश डाल कर उनके बलिदान की याद ताजा कर जाते हैं। बरहेट प्रखण्ड के भोगनाडीह गांव में चुनू मुर्मू के घर सिद्धो का जन्म 1820 ई0 को और कान्हू का जन्म 1832ई0 में हुआ था। उनके दो सहोदर भाई चन्द्राय मुर्मू तथा भैरव मुर्मू भी थे। इन देशभक्तों ने अंग्रेजों के अत्याचार का विरोध व आजादी का परचम लहराने के लिए 30 जून 1853 को पंचकठिया में बरगद के पेड़ के निचे संथाल हुल का बिगुल फूंका था। 1855-56 का संथाल विद्रोह संपूर्ण एशिया महादेश में विख्यात हुआ था। आज भी पंचकठिया का ऐतिहासिक बरगद का पेड़ हूल क्रांति का गवाह के रु प में मौजूद है।
संथाल विद्रोह में 30 हजार लोगों ने शहीद सिदो कान्हु के नेतृत्व में क्रांति का शंखनाद किया था। अपने अदम्य वीरता, अटूट साहस व विश्वास के साथ सिद्धो-कान्हु ने धनुष-वाण के बल पर ब्रिटिश बन्दूको व तोपों को परास्त कर दिया था। आज जिला प्रशासन उनके शहादत की याद में 11 अप्रैल व 30 जून को सिर्फ मेला का आयोजन कर खानापूर्ति करते हैं। जिसमें सूबे के कई मंत्री भी पहुंचते हैं। जो सिर्फ राजनैतिक अखाड़ा बन कर रह गया है। आज संथाल के विकास को देख वीर शहीदों की आत्मा रो रही होगी। सूबे में राजनैतीक रस्साकसी एवं भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे सूबे के नेताओं व अफसरसाही के नीचे गरीबों का विकास रूक सा गया है। आज भी पहाड़िया संथाल व आदिवासी समुदाय के लोग बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं।
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