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    यह है झारखंड का वेज मटन, कैंसर-अस्थमा जैसे रोग में है फायदेमंद

    By Sujeet Kumar SumanEdited By:
    Updated: Fri, 03 Jul 2020 05:33 AM (IST)

    Jharkhand Hindi Samachar. इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है जबकि कैलोरी और वसा नाम मात्र की होती है। मशरूम प्रजाति का रुगड़ा दिखने में छोटे आकार के आलू की तरह होता है।

    यह है झारखंड का वेज मटन, कैंसर-अस्थमा जैसे रोग में है फायदेमंद

    रांची, [मधुरेश नारायण]। Rugda is Veg Mutton of Jharkhand मटन और वह भी वेज! दरअसल रुगड़ा को झारखंड में इसी रूप में जाना जाता है। झारखंड के जंगल में पायी जाने वाली ये मशरूम की प्रजाति बेहद स्वादिष्ट होती है। इसका स्वाद बिलकुल मटन जैसा ही होता है। इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है, जबकि कैलोरी और वसा नाम मात्र की होती है। मशरूम प्रजाति का रुगड़ा दिखने में छोटे आकार के आलू की तरह होता है। आम मशरूम के विपरीत यह जमीन के भीतर पैदा होता है। वह भी हर जगह नहीं बल्कि साल के वृक्ष के नीचे। बारिश के मौसम में जंगलों में साल के वृक्ष के नीचे पड़ जाने वाली दरारों में पानी पड़ते ही इसका पनपना शुरू हो जाता है। ग्रामीण इन्हें एकत्र कर लेते हैं और बेचते हैं।

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    कर रहे रिसर्च

    मगर अब झारखंडी मशरूम देश-विदेश में अपनी पहचान बना सकेगा। Jharkhand Famous Food बीआइटी मेसरा के बायो तकनीक विभाग के अध्यक्ष डॉ रमेश चंद्र रूगड़ा पर पिछले 10 सालों से रिसर्च कर रहे हैं। वो इसे लंबे समय तक फ्रेश रखने की तकनीक पर का काम कर रहे हैं। दरअसल, रूगड़ा तीन से चार दिनों में खराब हो जाता है। मगर नयी तकनीक से इसे चार महीने तक फ्रेश रखा जा सकेगा। अगर हम रूगड़ा को प्रीजर्व कर सकगें तो देश के दूसरे कोनों में भी इसका निर्यात किया जा सकेगा।

    पेटेंट की तैयारी में बीआइटी

    बीआइटी मेसरा के वैज्ञानिक डॉ. रमेश चंद्र रूगड़ा के कई पहलुओं पर रिसर्च कर रहे हैं। इसमें इसके व्यावसायिक उत्पादन और प्रीजर्वेशन मुख्य है। उन्होंने बताया कि अब एक ऐसी तकनीक का विकास किया गया है जिससे रूगड़ा को चार महीनों तक फ्रेश रखा जा सकेगा। बीआइटी का बायोटेक्निकल विभाग इस तकनीक को पेटेंट कराने की तैयारी कर रहा है। उन्होंने इस तकनीक के बारे में विस्तार से जानकारी देने में फिलहाल असमर्थता जताई। इसके साथ ही भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अब इसकी खेती की तकनीक विकसित कर रहा है ताकि इसका व्यावसायिक तौर पर उत्पादन किया जा सके।

    साल भर करते हैं रूगड़ा का इंतजार

    कोकर डिस्टिलरी पुल के पास रूगड़ा बेच रही फूलमणि तिर्की बताती हैं कि वो खूंटी में रहती हैं। साल भर केवल वन में मिलने वाले उत्पाद को ही शहर में लाकर बेचती हैं। मगर बाकी उत्पाद की अच्छी कीमत नहीं मिलती है। रूगड़ा बाजार में 300-400 रुपये प्रतिकिलो तक बिक जाता है। इसलिए सालभर बरसात के मौसम का इंतजार करते हैं। हमें पहले ही अंदाजा हो जाता है कि जंगल में कहां रूगड़ा होने वाला है। हम ये मानते हैं कि जब बादल गरजता है तो रूगड़ा होता है।

    कई रोगों की दवा है रूगड़ा

    रूगड़ा कई रोगों की दवा भी है। इसमें कई ऐसे तत्व हैं जो मनुष्यों के रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसमें उच्च कोटि का प्रोटीन के अलावा विटामिन सी, विटामिन बी कांप्लेक्स, राइबोलेनिन, थाइमिन, विटामिन बी 12, फोलिक एसिड और लवण, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, तांबा एवं विटामिन डी पाया जाता हैं। इसके अलावा अस्थमा, कब्ज और कई चर्म रोग में आयुर्वेदिक दवा के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा कैंसर जैसे घातक रोगों से बचाने और लडऩे में भी रूगड़ा काफी सहायक सिद्ध हुआ है।

    कई नामों से जाना जाता है

    इसे अंडरग्राउंड मशरूम के नाम से भी जाना जाता है। Rugda Mushroom रुगड़ा का वैज्ञानिक नाम लाइपन पर्डन है। इसे पफ वाल्व भी कहा जाता है। इसे पुटो और पुटकल के नाम से जाना जाता है। मशरूम की प्रजाति होने के बावजूद इसमें अंतर यह है कि यह जमीन के अंदर पाया जाता है। रुगड़ा की 12 प्रजातियां हैं। सफेद रंग का रुगड़ा सर्वाधिक पौष्टिक माना जाता है। रुगड़ा मुख्यतया झारखंड और आंशिक तौर पर उत्तराखंड, बंगाल और ओडि़शा में होता है। रुगड़ा में सामान्य मशरूम से कहीं ज्यादा पोषक तत्व पाए जाते हैं।

    झारखंडी रुगड़ा की पहुंच बढ़ाएगी बीआइ़टी की नई तकनीक

    हरियाली और प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड में दर्जनों ऐसी साग-सब्जियां और वनस्पतियां भी उगती हैैं, जो दूसरे प्रदेशों में या तो नहीं उगतीं या कम जगह उपलब्ध हैैं। ऐसी ही विशिष्ट सब्जियों में रुगड़ा भी शामिल है। जमीन के भीतर उगने वाली छोटे आकार के आलू की तरह गोल आकार की मशरूम प्रजाति की यह सब्जी पौष्टिकता से तो भरपूर है ही, स्वाद में भी लाजवाब है।  मसालेदार सब्जियों की श्रेणी में आनेवाले रुगड़ा का मीट (मांस) जैसा स्पंजी होना भी इसकी खासियत है। यही वजह है कि लोग इसे देसी मटन के नाम से भी जानते हैैं। स्वाद ऐसा कि एक बार जायका जुबान पर चढ़ जाय तो फिर उतरता नहीं। रुगड़ा बाजार में 300-400 रुपये प्रतिकिलो की दर से बिक जाता है। कई जगह इसकी कीमत और भी ऊंची है।

    चार महीने तक तक बनी रहेगी ताजगी

    झारखंड की यह खास सब्जी अब देश-विदेश में अपनी पहचान बना सकेगी। बीआइटी मेसरा के बायोटेक्नोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रमेश चंद्र ने लंबेशोध के बाद रुगड़ा को काफी दिनों तक तरोताजा रखने की तकनीक ईजाद की है। डॉ. रमेश चंद्र बताते हैैं कि इस तकनीक की मदद से रुगड़ा को वैश्विक स्तर पर दूर-दूर भेजकर बड़ा बाजार उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे रुगड़ा उत्पादकों की आय भी बढ़ेगी और झारखंड की ब्रांडिंग भी होगी। दरअसल, रुगड़ा तीन से चार दिनों में खराब हो जाता है। नई तकनीक से इसे चार महीने तक फ्रेश रखा जा सकेगा। अगर हम रुगड़ा को प्रीजर्व कर सकेंगे तो देश के दूसरे कोनों में भी इसका निर्यात किया जा सकेगा।

    पेटेंट की तैयारी में बीआइटी

    रुगड़ा के कई पहलुओं पर बीआइटी मेसरा के वैज्ञानिक डॉ. रमेश चंद्र रिसर्च कर रहे हैं। इसमें इसके व्यावसायिक उत्पादन और प्रिजर्वेशन मुख्य है। लंबे समय तक प्रिजर्व रखने के लिए डीप फ्रीजिंग और केमिकल प्रोसेस की विधि का इसमें इस्तेमाल होगा। बीआइटी का बायोटेक्निकल विभाग इस तकनीक को पेटेंट कराने की तैयारी कर रहा है। उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद अब इसकी खेती की तकनीक विकसित कर रहा है ताकि इसका व्यावसायिक तौर पर उत्पादन किया जा सके।

    भरपूर मात्रा में प्रोटीन, कई रोगों की है दवा

    रुगड़ा कई रोगों की दवा बनाने में भी इस्तेमाल में लाया जाता है। इसमें कई ऐसे तत्व हैं जो मनुष्यों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करते हैं। इसमें उच्च कोटि के  प्रोटीन के अलावा विटामिन सी, विटामिन बी,

    राइबोलेनिन, थाइमिन, विटामिन बी 12, फोलिक एसिड और लवण, कैल्शियम, फास्फोरस, पोटैशियम, तांबा एवं विटामिन डी पाया जाता है।

    देश-विदेश में अपनी पहचान बनाएगा झारखंड का वेज मटन

    इसके अलावा अस्थमा, कब्ज और कई चर्म रोग में आयुर्वेदिक दवा के रूप में भी इस्तेमाल में लाया आता है। आम मशरूम के विपरीत यह जमीन के भीतर पैदा होता है। वह भी हर जगह नहीं, बल्कि साल के वृक्ष के नीचे। बारिश के मौसम में जंगलों में साल वृक्ष के नीचे पड़ जाने वाली दरारों में पानी पड़ते ही इसका पनपना शुरू हो जाता है। ग्रामीण इन्हें एकत्र कर खाते हैं या फिर बेचते हैं।