रांची ने दिनकर का भी मोह लिया था मन
रांची रांची की हरियाली और पहाड़ों का सौंदर्य शुरू से ही लोगों को आकर्षित करता रहा है। हालांकि अब की रांची पूरी तरह से बदल गई है।
जागरण संवाददाता, रांची : रांची की हरियाली और पहाड़ों का सौंदर्य शुरू से ही लोगों को आकर्षित करता रहा है। हालांकि अब की रांची पूरी तरह से बदल गई है। 1954 की रांची को याद करते हुए साहित्यकार प्रो. डॉ. ऋता शुक्ला ने बताया कि उस वक्त राष्ट्र कवि दिनकर के साथ मेरे पिताजी रांची आए थे। यहां की खूबसूरती को देखकर मंत्र मुग्ध हो गए थे। उन्होंने मेरे बाबूजी से कहा रामवृक्ष मेरा यहीं बस जाने को दिल करता है। यहां का कण-कण मेरे कवि ह्दय को चुंबक की तरह खींच रहा है।
डॉ. ऋता शुक्ला ने कहा कि वो 1967 में परिवार के साथ रांची रहने आ गई। तब से लेकर आज तक रांची को बसाने के नाम पर आदमी के हाथों प्रकृति को नष्ट होते देखा है। लोगों ने खुद हरी भरी रांची को उजाड़ दिया। वृक्षों को काटने से नहीं रोका :
रांची को ईश्वर ने वनस्पतियों और प्रकृति का साम्राज्य खुले हाथों से दिया था। 1967 से अबतक रांची में बहुत उतार चढ़ाव देखने को मिला। कई आंदोलन प्रकृति की रक्षा के लिए तब से लेकर आज तक हुए। फिर हमने रांची में वृक्षों को काटने से नहीं रोका। रांची की कई खूबसूरत पार्को, पहाड़ों, तालाबों को सुविधा के विकास के नाम पर उजाड़ा गया। हरी भरी रांची देखते-देखते कंक्रीट के जंगल में बदल गई। यहां के बाजार में बड़ा बदलाव आया। पहले सीधे साधे आदिवासी बाजार में ईमानदारी से सामान बेचते थे। लेकिन आज के बाजार ने उनके भोलेपन को कब खत्म कर दिया पता ही नहीं चला। रांची आज भी मुझे उतनी ही प्रिय है :
अब रांची में कुछ ही ऐसे जगह बचे हैं जहां जाकर दिल को सुकून मिलता है। इसमें से एक है टैगोर हिल। यहीं मेरा घर भी है। रांची में मेट्रो कल्चर हावी हो गया है। हर जगह भीड़भाड़ और कोलाहल है। ऐसे में जब भी मैं टैगोर हिल पर जाकर कुछ वक्त गुजारती हूं तो मुझे आत्मशांति मिलती है। हालांकि सरकार ने यहां भी कंक्रीट का जंगल बिछा दिया है। सरकार के द्वारा हाल के दिनों में टैगोर के बड़े भाई के द्वारा बनाई गई मड़ई की मरमत की गई है। हालांकि बदलाव जैसी भी आई हो रांची आज भी मुझे उतनी ही प्रिय है।
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