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दुनिया की सबसे प्राचीन मानी जाने वाली आस्ट्रिक और द्रविड़ बोलने वाले लोग भी हैं झारखंड में

देश-दुनिया को प्रभावित करने वाली झारखंड की संस्कृति में सीखने और सहेजे जाने लायक बहुत कुछ है। दुनिया की सबसे प्राचीन मानी जाने वाली आस्ट्रिक और द्रविड़ बोलने वाले लोग भी यहां हैं। प्राचीन जीवाश्म और भित्ति चित्र झारखंड के कह रहे गौरवमयी इतिहास की कहानी।

By M EkhlaqueEdited By: Published: Tue, 25 Jan 2022 07:00 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jan 2022 07:00 AM (IST)
दुनिया की सबसे प्राचीन मानी जाने वाली आस्ट्रिक और द्रविड़ बोलने वाले लोग भी हैं झारखंड में
झारखंड का बहुचर्च‍ित छऊ लोक नृत्‍य, ज‍िसकी चर्चा दुन‍िया में होती है। फाइल फोटो।

रांची, संजय कृष्ण। विशाल भारत में संस्कृति ही एक ऐसा तत्व है, जिसने सबको बांधकर रखा है। भारत में हर कोस पर बोली-पानी, पंरपरा और रीति-रिवाज में अंतर देखने को मिलता है। हर समाज की अपनी संस्कृति है, उसके रीति-रिवाज हैं, संस्कार हैं। झारखंड के संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है।

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सबसे पहले यहीं पर समुद्र से धरती निकली

सबसे पहले यहीं पर समुद्र से धरती निकली। दुनिया के सबसे प्राचीन जीवाश्म झारखंड में मिले। यहां के प्राचीन भित्ति चित्र भी सभ्यता और संस्कृति की कहानी कहते हैं। गुफाओं में बने चित्र हमारी प्राचीन संस्कृति की थाती हैं। वे सभ्यता के क्रमबद्ध इतिहास को भी प्रदर्शित करते हैं। यह ऐसी धरती है, जहां का कंकर-कंकर शंकर है। यहां दुनिया की सबसे प्राचीन मानी जाने वाली आस्ट्रिक और द्रविड़ परिवार की भाषाएं बोली जाती हैं। इसी तरह यहां के खूबसूरत मंदिरों में प्राचीन स्थापत्य कला के प्रमाण मिलते हैं।

झारखंड विभिन्न संस्कृतियों का समुच्य

झारखंड विभिन्न संस्कृतियों का समुच्य है और यह सब भारतीय संस्कृति के वैविध्य को रेखांकित करते हुए उसे एक विराट संस्कृति के निर्माण में अपना योग देते हैं। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है। यहां सबका अपना रंग-रूप सुरक्षित और संरक्षित है। वे अपनी पूरी गरिमा के साथ यहां मौजूद हैं।

झारखंड में 32 जनजातियां रहती हैं

झारखंड में ज्ञात 32 जनजातियां हैं, उनकी अपनी बोली-भाषा है। सांस्कृतिक एकरूपता की अंतर्धारा इन्हें एक-दूसरे से जोड़ती है। माला की तरह गुंथे संस्कृति के धागे में मोतियां अपनी चमक बिखेरती हैं।

झारखंड की संस्कृति ने अपनी चमक दुनिया में बिखेरी है। मांदर की थाप से देश गूंजा है। बांसुरी और शहनाई की स्वर लहरियों ने मिठास घोली है। प्रकृति यहां जीवन का हिस्सा है। पेड़-पौधे जानवर भी परिवार के अंग हैं। पठार और पहाड़ संस्कृति के आदिम राग को छेड़ते रहते हैं। दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में यदि झारखंड की संस्कृति समाज का अध्ययन हो रहा है, यह इसकी व्यापक स्वीकृति के लिए लक्षण हैं।

सामूहिकता और प्रकृति पूजा सबसे बड़ी खासियत

संस्कृति विशेषज्ञ डा. हरि उरांव कहते हैं कि झारखंडी संस्कृति की सबसे खास बात यहां की सामूहिकता और प्रकृति पूजा है। यहां निजता का कोई मतलब नहीं रहा है। यहां एक अलग तरह की व्यवस्था रही है। पड़हा-मानकी मुंडा, मांझी आदि व्यवस्था यहीं के समाज की विशिष्टता बताती है। इसी से आदिवासी समाज संचालित होता रहा है। हर आदिवासी प्रकृति की पूजा करता है। प्रकृति और पर्यावरण के इर्द-गिर्द ही हमारी संस्कृति और पंरपरा संचालित होती है।

आदिवासी दर्शन से ही बचेगी यह दुनिया

संस्कृति विशेषज्ञ डा. हरि उरांव कहते हैं कि आज दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग की चिंता हो रही है। आदिवासी दर्शन ही ऐसा दर्शन है, जिससे हम दुनिया को बचा सकते हैं। भारतीय संस्कृति में पेड़, पौधे, नदियों के पूजने की परंपरा है, वह इसीलिए कि इन्हीं से हमारा जीवन संचालित होता है। धरती के हर प्राणी के लिए यह जरूरी है। भविष्य हमारा तभी सुरक्षित रहेगा, जब हम प्रकृति और संस्कृति का सम्मान करेंगे, जीवन में धारण करेंगे। दूसरे अर्थों में, भविष्य के लिए यह जरूरी है।


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