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    Navratri 2022: झारखंड के चार मंदिरों में मनाया जाता है 16 दिनों का नवरात्र, सैकड़ों वर्षों से है यह परंपरा

    By Jagran NewsEdited By: Sanjay Kumar
    Updated: Tue, 04 Oct 2022 08:14 AM (IST)

    Navratri 2022 Maha Navami नवरात्र में हर ओर आस्था चरम पर है। क्या आपको पता है कि झारखंड में देवी के चार धाम ऐसे हैं जहां 16 दिनों का नवरात्र होता है। सैकड़ों वर्षों से इन मंदिरों में यह परंपरा चली आ रही है।

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    Navratri 2022 Maha Navami: झारखंड के चार मंदिरों में मनाया जाता है 16 दिनों का नवरात्र।

    रांची, जागरण टीम। Navratri 2022 Maha Navami नवरात्र में हर ओर आस्था चरम पर है। देवी की उपासना महानवमी के दिन मां सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना के साथ अपनी परिणति तक पहुंचेगी और विजयादशमी के दिन पूजा का विसर्जन होगा। उपासना के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने के लिए मां की साधना और भक्ति के कई रंग इस दौरान देखने को मिल रहे हैं। आम तौर पर नवरात्र नौ दिनों का होता है, लेकिन झारखंड में देवी के चार धाम ऐसे हैं, जहां 16 दिनों का नवरात्र होता है। लातेहार जिले के चंदवा में स्थित मां उग्रतारा मंदिर, बोकारो के कोलबेंदी मंदिर, चाईबासा के केरा मंदिर और सरायकेला खरसावां के मां पाउड़ी के मंदिर में यह परंपरा है।

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    इन मंदिरों में नवरात्र शुरू होने से नौ दिन पहले आश्विन कृष्ण पक्ष नवमी के दिन जिउतिया पर्व के मौके पर कलशस्थापना होती है, दुर्गापूजा के महानवमी तक ये कलश स्थापित रहते हैं। सैकड़ों वर्षों से इन मंदिरों में यह परंपरा चली आ रही है।

    16 दिवसीय पूजन के लिए लिखी गई है पूजन विधि पुस्तक

    लातेहार स्थित मां उग्रतारा नगर मंदिर में श्रद्धालुओं को गर्भगृह में जाने की मनाही है। यहां 16 दिनों तक पुजारी कलशस्थापना कर देवी की पूजा करते हैं। पुजारी गर्भगृह में जाकर श्रद्धालुओं के लाए प्रसाद का भोग माता को लगाते हैं। प्रसाद में मुख्य रूप से नारियल और मिसरी का भोग लगाया जाता है। मंदिर में दुर्गापूजा के मौके पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु दूर-दूर से माता के दर्शन करने आते हैं। यहां के पुजारियों के अनुसार 200 पन्ने की 500 साल पुरानी पोथी के आधार पर यहां 16 दिवसीय विशेष पूजा संपन्न होती है। कैथी लिपी में मोरपंख से लिखी गई यह पुस्तक अपने आप में दुर्लभ है।

    मंदिर के सेवायत सह मुंतजिमकार पं. गोविद वल्लभ मिश्र ने बताया कि उनके पूर्वज यहां के पुजारी थे। पूर्वजों ने ही 16 दिवसीय पूजन के लिए पूजन विधि पुस्तक लिखी थी। देवी मां के समान ही पोथी को सम्मान से रखकर उसकी पूजा की जाती है। मां उग्रतारा को नगर भगवती के नाम से भी जाना जाता है।

    पान का पत्ते गिरने को माना जाता है भगवती से विसर्जन की अनुमति

    मां उग्रतारा मंदिर में 16 दिनों के दुर्गा पूजा के बाद विजयादशमी के दिन मां भगवती को पान चढ़ाया जाता है। आसन से पान गिरने के बाद ही यह माना जाता है कि मां भगवती की ओर से विसर्जन की अनुमति मिल गई है। कई बार पान रात-रात भर नहीं गिरता है। ऐसे में हर पल आरती का दौर जारी रहता है। पान गिरने के बाद विसर्जन की पूजा होती है। यहां देश भर के विभिन्न हिस्से से श्रद्धालु पूजन के लिए सालों भर आते हैं। नवरात्र के समय यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।

    सरायकेला राजघराने के लोग करते हैं मां पाउड़ी की पूजा

    सरायकेला राजघराने में नवरात्र पर मां पाउड़ी की पूजा 16 दिनों तक की जाती है। पूजा के दौरान 16 दिनों तक माता के मंदिर में अखंड ज्योत जलाई जाती है। 16 दिनों तक आयोजित पूजन उत्सव के अवसर पर प्रतिदिन प्रसाद चढ़ाने का विधान है। इसका सेवन राज परिवार के सदस्यों द्वारा राजमहल परिसर के भीतर ही किया जाता है। पूजा के समापन दिवस महाष्टमी पर चढ़ाए गए महाप्रसाद का वितरण राज परिवार सहित समस्त भक्तों-श्रद्धालुओं में किया जाता है। परंपरागत पूजन विधान के अनुसार ढोल, नगाड़ा, चेड़चेड़ी व मोहरी वाद्य यंत्रों की गूंज के बीच जागरण करते हुए मां पाउड़ी की पूजा-अर्चना की जाती है।

    राजघराने के वर्तमान प्रतिनिधि राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव बताते हैं कि मां पाउड़ी पूरे सिंहभूम की इष्ट देवी हैं। चक्रधरपुर स्थित पोड़ाहाट गांव से करीब 350 वर्ष पहले मां पाउड़ी की प्रतिमा रहस्यमय तरीके से यहां आई थी।

    बोकारो के कोलबंदी में 350 साल से चली आ रही परंपरा

    बोकारो जिले के चास प्रखंड के कोलबेंदी गांव में जितिया पर्व के पारण के दिन राज पुरोहित व पुजारी यजमानों की उपस्थिति में बुधन कलश स्थापित कर पूजा आरंभ करते हैं। यहां भी राज परिवार (सिंहदेव परिवार) की आराध्य देवी मां दुर्गा की आराधना होती है। महासप्तमी को सिंह देव परिवार के पुरुष पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र लेकर गाजे-बाजे के साथ निकटतम जलाशय ईजरी नदी जाते हैं और देवी दुर्गा को नवपत्रिका के रूप में पालकी से लाकर मंदिर में उनकी स्थापना करते हैं। बताया जाता है कि करीब 350 साल पहले से जमींदार ठाकुर किशन देव ने मंदिर की स्थापना कर पूजन प्रारंभ कराया था। तब से यह परंपरा चली आ रही है।