यह है झारखंड का लंदन, इस गोरों के गांव का नाम है मैक्लुस्कीगंज
रांची से 55 किलोमीटर उत्तर- पश्चिम में जंगल, पहाड़ों के बीच बसा मैकलुस्कीगंज में अब भी दर्जनभर गोरों का परिवार रहता है।
खलारी, धीरेंद्र प्रसाद। झारखंड का लंदन या गोरों के गांव के नाम से चर्चित मैक्लुस्कीगंज में अब गोरे नहीं हैं। कभी चार सौ गोरे परिवारों की इस बस्ती में अब बमुश्किल एक दर्जन परिवार रह गए हैं। रांची से कोई 55 किलोमीटर उत्तर- पश्चिम में जंगल, पहाड़ों के बीच बसा यह कस्बा अब भी पर्यटकों, पत्रकारों, फिल्म निर्माताओं के लिए आकर्षण का केंद्र है।
बचे हुए विक्टोरियन स्टाइल के बंगले, फल के बगीचे लोगों को अब भी खींचते हैं। इस जंगली इलाके में अंग्रेजी रहन सहन, उनका अंदाज अपने दौर में देश के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र था। बची हुई हर कोठी कुछ कहती है। देखेंगे तो भीतर में टीस सी उठेगी। आधुनिक सुविधाओं में रहने वाले गोरे आठ दशक पहले कैसे इस जंगली इलाके में बसे होंगे। और आने वाली पीढिय़ां कैसे अपने बुजुर्गों को छोड़कर गई होंगी।
बसाया था चमन : 1932-33 के दौरान कोलकाता के एंग्लो इंडियन व्यवसायी ईटी मैकलुस्की ने अपनी जमात के लोगों को यहां बसाया था। मैक्लुस्की यहां शिकार खेलने आया करते थे। यहां के जंगल, पहाड़, नदियां, महुआ, कटहल, आम, कदंब, अमरूद, सखुआ, करंज आदि के पेड़ इतने भाये कि यही चमन बसाने का निर्णय कर लिया।
'कॉलोनाइजेशनसोसाइटी ऑफ इंडिया लिमिटेड नाम के एक संस्था का गठन किया और इसी संस्था के नाम पर रातू महाराज से यहां की दस हजार एकड़ जमीन खरीदी। पूरे भारत से दो लाख एंग्लो इंडियन को प्रकृति के इस स्वर्ग में बसने का आमंत्रण दिया। 1932 तक लगभग 400 एंग्लो इंडियन परिवारों ने मैक्लुस्कीगंज में बसना तय कर लिया।
बदलती गई मैक की सूरत : समय के थपेड़ों और बदलती पीढिय़ों ने गंज की सूरत बदल दी। रोजी की तलाश में नई पीढिय़ां बाहर निकलती चली गईं। बुजुर्ग खत्म होते गए। मकान उपेक्षित होते गए, स्वामित्व बदलता गया। मगर अब भी पर्यटक और विदेशी पर्यटक यहां दिख जाते हैं। कोई घूमने आता है तो कोई अपने पूर्वजों की बस्ती देखने आता है। बंगाल के लोगों के लिए मैक्लुस्कीगंज पसंदीदा जगह है। अक्टूबर से मार्च तक पर्यटकों की संख्या ज्यादा होती है। सरकार की ओर से टूरिस्ट इंफार्मेशन सेंटर खोला गया है। डाक बंगला का निर्माण तेजी से चल रहा है। आने वाले दिनों में डीयर पार्क जैसी योजनाएं प्रस्तावित हैं।
पलायन हो गई मजबूरी : द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एंग्लो इंडियन परिवारों के बढ़ते बच्चों को रोजगार के दृष्टिकोण से यह जगह असुरक्षित लगने लगी और एक-एक कर एंग्लो इंडियन परिवारों का मैक्लुस्कीगंज से पलायन शुरू हो गया। आजादी के बाद लगभग 200 एंग्लो इंडियन परिवार ही यहां बचे थे। वर्ष 1957 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जाकिर हुसैन ने सोसाइटी के लोगों को सलाह दी कि जो लोग अभी भी ब्रिटेन जाना चाहते हैं, उनके लिए सरकार व्यवस्था करेगी। राज्यपाल की सलाह पर लगभग 150 परिवार पुन: विदेश चले गए।
...बुद्धदेव गुहा, अपर्णा सेन और 36 चौरंगी लेन की पटकथा : बाद में सेना के अवकाश प्राप्त अधिकारियों तथा कई दूसरे शहरियों ने मैक्लुस्कीगंज को अपना बसेरा बना लिया। बांग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, बांग्ला व हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री अपर्णा सेन ने भी मैक्लुस्कीगंज में एक-एक बंगला खरीदा था। बुद्धदेव गुहा के मैक्लुस्कीगंज पर लिखे बांग्ला उपन्यास ने मैक्लुस्कीगंज को कोलकतावासियों के बीच लोकप्रिय बनाया। अभिनेत्री अपर्णा सेन अपने पत्रकार पति मुकुल शर्मा के साथ मैक्लुस्कीगंज में काफी दिनों तक रहीं। अपर्णा सेन ने अपनी फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैक्लुस्कीगंज से प्रेरित होकर ही लिखी थी। साठ के दशक में मैक्लुस्कीगंज आए एंग्लो इंडियन कैप्टन डीआर कैमरोन ने मैक्लुस्की के हाइलैंड गेस्ट हाउस को खरीद लिया और मैक्लुस्कीगंज के पुराने गौरव को लौटाने के लिए सभी तरह के उपाय किए, मगर बात नहीं बनी।
डॉन बॉस्को का सहारा : बेरोजगारी झेल रहे बचे हुए एंग्लो इंडियन परिवारों के लिए आशा की किरण तब जागी, जब वर्ष 1997 में बिहार के मनोनीत एंग्लो इंडियन विधायक अल्फ्रेड डी रोजारियो ने डॉन बॉस्को एकेडमी की एक शाखा मैक्लुस्कीगंज में खोल दी। इस स्कूल झारखंड और बाहर के एक हजार से अधिक बच्चे हैं। एंग्लो इंडियन परिवारों ने अपने बंगलों को पेइंग गेस्ट के रूप में बच्चों का हॉस्टल बना दिया। यह उनकी आमदनी का जरिया बना और मैक्लुस्कीगंज को अलविदा कहने से रोक लिया। आज मैक्लुस्कीगंज एक एजुकेशनल हब के साथ पर्यटकस्थल के रूप में अपनी पहचान बना रहा है।
...किटी मेमसाहब : मैक्लुस्कीगंज में एंग्लो इंडियन केटी टेक्सरा जिसे लोग किटी मेम साहब के नाम से जानते हैं। आने वाले अधिकतर सैलानी उनसे मिलना चाहते हैं। हाल ही झारखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अनिरुद्ध बोस किटी मेमसाब से मिले थे। देश की हिन्दी, अंग्रेजी कई पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकारों, कथाकारों ने किटी को जगह दी है। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक विकास कुमार झा के उपन्यास 'मैक्लुस्कीगंज' के कवर पेज पर ही किटी मेमसाब की तस्वीर लगी है। मैक्लुस्कीगंज में फिल्म की शूटिंग करने आए कई निदेशकों ने केटी टेक्सरा को किसी न किसी किरदार के रूप में शूट किया। दो दशक पूर्व मैक्लुस्कीगंज स्टेशन पर फल बेचती किटी मेमसाब की भाषा हर किसी का ध्यान खींचती थी। ग्राहकों के अनुसार अंग्रेजी, हिन्दी और नागपुरी में बात करता देख हर कोई आकर्षित हो जाता। किटी जब स्वस्थ थी, तब फल बेचकर जैसे-तैसे बच्चों को बड़ा किया। अब शरीर साथ नहीं देता। 68 वर्षीया किटी के नाना एडवर्ड डैनियल रॉबर्ट अंग्रेजी हुकूमत में असम के गवर्नर के सेक्रेटरी थे। नाना और मां की मृत्यु के बाद किटी ने स्थानीय रमेश मुंडा से शादी कर ली। दो साल पहले किटी के पति की मृत्यु हो गई। किटी मेमसाब का गौरवपूर्ण अतीत आज उनके घर की दीवार पर पिक्चर के रूप में टंगा है।
फिल्मकारों की पसंद : मैक्लुस्कीगंज इन दिनों फिल्मकारों की पसंदीदा जगह बनता जा रहा है। पहले भी कई बांग्ला फिल्म की शूटिंग यहां हो चुकी है। मार्च 2016 में डायरेक्टर और अभिनेत्री कोंकणा सेन ने निर्देशक के रूप में अपनी पहली फिल्म 'अ डेथ इन गंज' की शूटिंग की। कोंकणा की बचपन की यादें मैक्लुस्कीगंज से जुड़ी हैं। इधर, कई दूसरी फिल्मों की शूटिंग की योजनाएं हैं। फिल्मों के निर्माता, निर्देशक अक्सर मैक्लुस्कीगंज आते रहते हैं।
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