झारखंड का वह गांव जहां गुरुवार को 'थम' जाते हैं हल, मशीनी युग में भी अडिग है पूर्वजों की ये अनूठी विरासत
झारखंड के लातेहार जिले में एक ऐसा गांव है जहां हर गुरुवार को खेती का काम पूरी तरह से बंद रहता है। ग्रामीण इस दिन हल और अन्य कृषि उपकरणों का उपयोग नहीं ...और पढ़ें

कैमा गांव में गुरुवार को खेत नहीं, पीढ़ियों का विश्वास जोता जाता है।
जागरण लातेहार, उत्कर्ष पाण्डेय। झारखंड के लातेहार जिले का एक छोटा सा गांव कैमाआज आधुनिकता और आस्था के अद्भुत संगम की मिसाल पेश कर रहा है। जहां पूरी दुनिया मशीनी रफ्तार के पीछे भाग रही है, वहीं इस गांव के किसान हर गुरुवार को स्वेच्छा से खेती का काम रोक देते हैं।
यह कोई मजबूरी नहीं, बल्कि उस 'हल' के प्रति कृतज्ञता है, जो साल भर मिट्टी का सीना चीरकर गांव के लिए अन्न पैदा करता है। कैमा गांव में गुरुवार को खेत नहीं जोते जाते, बल्कि पीढ़ियों से चला आ रहा वह अटूट विश्वास जीवित किया जाता है जो इस मिट्टी की असली आत्मा है।
अन्नदाता का विश्राम और आस्था का अभिषेक
कैमा गांव की सुबह आम तौर पर गायों की रंभाहट और बैलों की घंटियों से होती है, लेकिन गुरुवार का सवेरा कुछ अलग ही शांति और पवित्रता लेकर आता है। इस दिन किसान अपने हल को खेत में ले जाने के बजाय उसे श्रद्धापूर्वक धोकर साफ़ करता है। हल्दी, चावल और सिंदूर से हल का तिलक किया जाता है और दीपक जलाकर अच्छी फसल व स्वस्थ पशुधन की कामना की जाती है।
गांव के बुजुर्ग सघनू, शिकेश्वर और लकटू बताते हैं कि हल केवल लोहे या लकड़ी का औजार नहीं है, बल्कि वह 'अन्नदाता देवता' का प्रतीक है। जिस प्रकार इंसान को आराम की जरूरत होती है, उसी तरह इस गांव के लोग अपने हल और बैलों को सप्ताह में एक दिन ससम्मान विश्राम देते हैं।
ट्रैक्टर के शोर पर भारी है परंपरा की मर्यादा
वक्त बदला और खेती के तरीके भी बदल गए। आज गांव के कई खेतों में बैलों की जगह आधुनिक ट्रैक्टरों की गड़गड़ाहट सुनाई देती है, लेकिन इस आधुनिकता ने सदियों पुरानी मर्यादा को नहीं बदला है। गांव के युवा किसान विपिन, नम्रेंद्र और सुबोध बताते हैं कि नियम ट्रैक्टर पर भी लागू होता है। गुरुवार के दिन गांव की सरहद के भीतर कोई भी किसान खेत की जुताई नहीं करता।
यह अनुशासन किसी जुर्माने या डर के कारण नहीं, बल्कि उस अनुभव से उपजा है जो कहता है कि इस मर्यादा को निभाने से खेतों में बरकत रहती है और गांव किसी भी बड़े संकट से बचा रहता है। यहां तक कि बुवाई का पीक सीजन होने पर भी ग्रामीण इससे समझौता नहीं करते।
जड़ों से जुड़ाव: नई पीढ़ी को विरासत का पाठ
कैमा गांव की यह परंपरा केवल धार्मिक कर्मकांड तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरी जीवन पद्धति है। पूजा के दौरान घर के बच्चों को पास बिठाया जाता है ताकि वे समझ सकें कि जिन संसाधनों से हमारी आजीविका चलती है, उनका सम्मान करना ही हमारी संस्कृति है।
यह गांव आज झारखंड में कृषि और दुग्ध उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र है। ग्रामीणों का मानना है कि उनकी समृद्धि का राज इसी कृतज्ञता भाव में छिपा है। जब किसान अपने औजारों के प्रति संवेदनशील होता है, तो वह मिट्टी और प्रकृति के प्रति भी उतना ही उदार हो जाता है।
प्रशासनिक सराहना और विकास की राह
कैमा गांव की इस अनूठी संस्कृति ने जिले के अधिकारियों का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है। लातेहार के उपविकास आयुक्त सैय्यद रियाज अहमद ने इस परंपरा को दिलचस्प और प्रेरणादायक करार दिया है। जहां प्रशासन कृषि और पशुपालन को तकनीकी रूप से बढ़ावा दे रहा है, वहीं इस तरह के सांस्कृतिक मूल्य ग्रामीणों को एकजुट रखने में मदद करते हैं।
कैमा गांव आज एक बड़ा संदेश देता है कि विकास का अर्थ अपनी पहचान खोना नहीं है। मशीनों की दौड़ में भी अगर संवेदना बची रहे, तो खेती केवल व्यापार नहीं बल्कि जीवन जीने की एक सुंदर कला बन जाती है। यहां गुरुवार को भले ही हल रुक जाते हों, लेकिन गांव का सामूहिक विश्वास और आत्मसम्मान हर दिन नई ऊंचाइयां छू रहा है।
गांव में इस अनूठी परंपरा के बारे में पता चला, वाकई यह दिलचस्प है। पशुपालन और कृषि को बढ़ावा देने में जिला प्रशासन तत्परता से कार्य कर रहा है। ग्रामीण किसान किसी भी तरह के मार्गदर्शन हेतु बिना संकोच कृषि विभाग से सीधा संपर्क करें आपको तत्काल मदद मिलेगी।
- सैय्यद रियाज अहमद, उपविकास आयुक्त लातेहार।

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