जब देश में सभी को अपनी जमीन उचित मोलभाव करके बेचने का हक है तो फिर आदिवासियों को क्यों नहीं?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि जमीन लूटने जैसा दुष्प्रचार जान-बूझ कर फैलाया जाता है ताकि आदिवासियों को मुख्यधारा से अलग-थलग रखा जा सके। जो भी हो सभी पहलुओं को ध्यान में रखकर आदिवासियों और राज्य के हित में राजनीतिक दलों को इस पर खुलकर बहस तो करनी ही चाहिए।

रांची, प्रदीप शुक्ला। प्रकृति के उपासक आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन हमेशा से बहुत संवेदनशील मुद्दा रहा है। इनमें किसी भी प्रकार की दखल वे बर्दाश्त नहीं करते हैं। आजादी के बाद उनकी जमीन की खरीद-फरोख्त संबंधी कानून छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) में जब भी बदलाव हुआ या प्रविधानों को कुछ शिथिल करने की कोशिश हुई, तो आंदोलन हुए। मजबूरन सत्ता प्रतिष्ठानों को अपने हाथ वापस खींचने पड़े। बावजूद इसके राज्य में यह विमर्श तो लगातार चलता ही आ रहा है कि अब इन दोनों कानून की समीक्षा तो होनी ही चाहिए?
यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या वाकई इनसे आदिवासियों को लाभ हो रहा है अथवा नुकसान? क्या इन दोनों कानूनों में कुछ बदलाव अथवा सरलीकरण से सच में आदिवासियों की जमीनें लूट ली जाएंगी? क्या आदिवासी अभी भी इतने भोले हैं कि कोई भी उन्हें ठग लेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ आदिवासी वोट बैंक की राजनीति के चलते ही इन पर कोई सार्थक बहस नहीं हो पा रही? अब जब इन कानूनों को खत्म करने का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है तो एक बार फिर नए सिरे से इनकी प्रासंगिकता पर चर्चा शुरू हो गई है।
आदिवासियों की जमीन की सुरक्षा के लिए बने इन कानूनों से इस समाज का क्या नुकसान हो रहा है, इसे राज्य के आदिवासी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की ताजा टिप्पणी से भी समझ सकते हैं। देवघर में एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि बैंक सीएनटी-एसपीटी एक्ट का हवाला देकर आदिवासियों को ऋण नहीं दे रहे हैं। पूर्व में भी एक बार वह इस दर्द को बयां कर चुके हैं। तब उन्होंने कहा था कि उनके परिवार के पास बेशक संपत्तियां हैं, लेकिन उनकी कीमत कुछ भी नहीं है, क्योंकि वह उन्हें किसी बाहरी व्यक्ति को बाजार कीमत पर बेच ही नहीं सकते हैं। ऐसे में आम आदिवासी की स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है।
आदिवासी बाहुल्य गांवों में जाएंगे तो हैरत में पड़ जाएंगे, आखिर बड़ी जोत वाले आदिवासी गरीबी भरा जीवन क्यों जी रहे हैं। बैंक से उन्हें जमीन पर कोई ऋण नहीं मिल पाता है। इसी के चलते यह चर्चा हमेशा छिड़ती रहती है कि क्या अंग्रेजों के समय में बनाए गए कानून की अब कोई जरूरत है? वर्ष 1908 में बने सीएनटी एक्ट के अनुसार आदिवासियों की जमीन कोई गैर आदिवासी नहीं ले सकता। वह गैर आदिवासियों को लीज पर जमीन दे तो सकता है, लेकिन केवल चार साल 11 माह के लिए। इसके नवीनीकरण का कोई प्रविधान नहीं है। बावजूद रांची सहित तमाम शहरों में गैर आदिवासियों ने जमीन लीज पर लेकर मकान खड़े कर लिए हैं। चूंकि जमीन की खरीद- फरोख्त हो नहीं सकती है, ऐसे में जरूरत पड़ने पर आदिवासी औने-पौने दाम पर अपनी जमीन गैर आदिवासी को बगैर रजिस्ट्री किए स्टांप पेपर पर लिखकर हस्तांतरित कर देते हैं। लेने और देने वाले दोनों को पता होता है कि यह अवैध है।
इन कानूनों का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि यह एक्ट आदिवासियों को कृषक ही देखता व मानता है, जबकि आज परिस्थितियां भिन्न हैं। आदिवासी समाज अब केवल खेती-बाड़ी पर ही निर्भर नहीं है। बड़ी संख्या में आदिवासी पढ़-लिखकर इंजीनियर-डाक्टर बन रहे हैं तो कई कारोबार में अपना परचम लहरा रहे हैं। ऐसे में उन्हें भी कई बार ऋण की जरूरत पड़ती है, लेकिन ये दोनों कानून इसमें आड़े आते हैं। इसके विपरीत कानून समर्थकों का मानना है कि इनकी वजह से ही आदिवासियों की जमीन अब तक बची हुई हैं। इसे कायम रहना चाहिए।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब देश में सभी को अपनी जमीन उचित मोलभाव करके बेचने का हक है तो फिर आदिवासियों को क्यों नहीं? राजनीतिक दल उन्हें जागरूक करने के बजाय इसका डर क्यों दिखाते रहते हैं कि यदि एक्ट खत्म हो गए तो उनकी जमीन लूट ली जाएगी? क्या देश के किसी राज्य में किसी जाति, धर्म, समुदाय की जमीन लूटे जाने का कोई उदारहण है? क्या आदिवासी प्रगति की दौड़ में शामिल होने का अधिकार नहीं रखते?
[स्थानीय संपादक, झारखंड]
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