राज्य ब्यूरो, रांची। झारखंड हाई कोर्ट में गुरुवार को उस चर्चित मामले की सुनवाई हुई, जिसमें 2014 में बड़ी संख्या में आदिवासी युवाओं को नौकरी दिलाने के नाम पर नक्सली बताकर फर्जी सरेंडर कराने का गंभीर आरोप लगाया गया है।
मामला चीफ जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस राजेश शंकर की खंडपीठ में सूचीबद्ध था। अदालत ने सुनवाई के दौरान इस मामले को अत्यंत संवेदनशील बताते हुए राज्य पुलिस की भूमिका पर कड़ी टिप्पणी की।
डीएसपी स्तर के अधिकारी का शपथपत्र देख भड़की अदालत
सुनवाई के दौरान राज्य की ओर से डीएसपी रैंक के अधिकारी का शपथपत्र दाखिल किया गया। यह देखते ही खंडपीठ ने नाराजगी जताई और कहा कि इतने गंभीर और संवेदनशील मामले में निम्न स्तरीय अधिकारी का हलफनामा स्वीकार्य नहीं है।
अदालत ने स्पष्ट निर्देश दिया कि इस प्रकरण में स्वयं डीजीपी शपथपत्र दाखिल करें, क्योंकि यह मामला सीधे पुलिस की कार्यप्रणाली और युवाओं के संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है। अदालत ने कहा कि इस तरह के मामलों में उच्चस्तरीय जवाबदेही आवश्यक है।
फर्जी सरेंडर की तैयारी का आरोप
यह जनहित याचिका झारखंड काउंसिल फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की ओर से दायर की गई है। याचिका में बताया गया है कि वर्ष 2014 में 514 आदिवासी युवकों को नौकरी देने का लालच देकर कोचिंग संस्थान ‘दिग्दर्शन’ और कुछ पुलिस अधिकारियों की मिलीभगत से नक्सली बताने की साजिश रची गई थी। आरोप है कि युवाओं से कहा गया था कि यदि वे सरेंडर प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगे तो उन्हें सरकारी नौकरी दिलाई जाएगी।
पुरानी जेल में रखे गए थे युवक
याचिका में यह भी उल्लेख है कि फर्जी सरेंडर की तैयारी के दौरान इन युवकों को पुरानी जेल में बंद रखा गया, ताकि उन्हें वास्तविक नक्सली के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। कहा गया कि पुलिस अधिकारियों ने नक्सलियों के सरेंडर के आंकड़े बढ़ाने के लिए यह पूरी योजना बनाई थी। युवाओं को झांसा देकर उन्हें नक्सली घोषित करने और फिर उनके ‘सरेंडर’ को उपलब्धि बताने की तैयारी राज्य स्तर पर की जा रही थी।
अगली सुनवाई 8 दिसंबर को
अदालत ने पुलिस मुख्यालय से स्पष्ट और विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है। खंडपीठ ने कहा कि मामले की गंभीरता को देखते हुए शीर्ष स्तर से जवाब आवश्यक है। अदालत ने अगली सुनवाई 8 दिसंबर के लिए निर्धारित की है, जिसमें डीजीपी का शपथपत्र अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करना होगा।
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