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Ishwar Chandra Vidyasagar: विद्या के सागर व करुणा के सिंधु थे ईश्वरचंद्र, नारी शिक्षा व विधवा पुनर्विवाह को दिलाई कानूनी मान्यता

Ishwar Chandra Vidyasagar Birth Anniversary Koderma News ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने समाज में नई चेतना का संचार किया। उनकी व्याकरण पर पकड़ ने बड़े-बड़े विद्वानों को हैरत में डाल दिया था। उन्‍होंने एक विधवा से अपने बेटे का विवाह कराया।

By Sujeet Kumar SumanEdited By: Published: Sat, 25 Sep 2021 06:14 PM (IST)Updated: Sat, 25 Sep 2021 06:51 PM (IST)
Ishwar Chandra Vidyasagar: विद्या के सागर व करुणा के सिंधु थे ईश्वरचंद्र, नारी शिक्षा व विधवा पुनर्विवाह को दिलाई कानूनी मान्यता
Ishwar Chandra Vidyasagar Birth Anniversary, Koderma News ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने समाज में नई चेतना का संचार किया।

कोडरमा, [अनूप कुमार]। दया नहीं, विद्या नहीं, उनके चरित्र का मुख्य गौरव था अजेय पौरुष, अक्षय मनुष्यत्व। विश्वकवि रविंद्र नाथ टैगोर ने यह बात उस महापुरुष के लिए कही थी, जिन्होंने पूरे भारतवर्ष में नारी शिक्षा, महिलाओं के अधिकार व विधवा पुनर्विवाह का कानून पास कराकर देश में नई चेतना को जन्म दिया। आज 26 सितंबर को इस महान मानवतावादी समाज सुधारक, भारतीय पुनर्जागरण के प्रणेता पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर की जयंती है। विद्यासागर नारी शिक्षा के साथ-साथ तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, जात-पात, ऊंच-नीच, अंधविश्वास व धर्मान्धता के खिलाफ अविराम संघर्ष चलाते रहे।

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समाज के उत्थान के लिए नारी शिक्षा के महत्व को देखकर नवंबर 1856 से मई 1857 तक उन्होंने बंगाल में 35 बालिका विद्यालय की स्थापना की। जिस समय विद्यासागर बालिका विद्यालय की स्थापना कर रहे थे, उस समय नारी शिक्षा दिवास्वप्न की तरह था। खुद विद्यासागर की धर्मपत्नी दीनमयी देवी निरक्षर थीं। शिक्षा पाने की ललक के बावजूद समाज में शिक्षा का अधिकार बालिकाओं को नहीं था। बालिका शिक्षा के संबंध में कई भ्रांतियों के बीच विद्यासागर का प्रण एवं दृढ़ निश्चय ने धीरे-धीरे नारी शिक्षा का द्वार प्रशस्त किया।

कई भाषाओं के विद्वान थे ईश्वरचंद्र

विद्यासागर नाम के अनुसार ही विद्या के सागर ही थे। संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी व हिंदी भाषाओं के ज्ञाता विद्यासागर बचपन से ही मेधावी व लगनशील मनोवृत्ति के थे। 6 वर्ष की आयु में उनके पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय उन्‍हें अच्छी शिक्षा के लिए मेदिनीपुर के वीरसिंग गांव से कोलकाता ले आए। यहां उन्‍होंने छात्रवृत्ति के सहारे अपनी पढ़ाई पूरी की। इस दौरान प्रत्येक परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। जल्द ही उनका प्रभाव बंगाल के कोने-कोने तक पहुंचने लगा। उनकी व्याकरण पर पकड़ ने बड़े-बड़े विद्वानों को हैरत में डाल दिया।

1841 में फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रधान पंडित के रूप में उन्‍होंने अपनी सेवा दी। 1850 साल में संस्कृत कॉलेज में भाषा साहित्य के अध्यापक के रूप में कार्य आरंभ किया और एक माह के अंदर कॉलेज के अध्यक्ष बन गए। उस समय संस्कृत कॉलेज में वर्ण प्रथा के हिसाब से विद्यार्थियों का प्रवेश होता था। ब्राह्मण व वैद्य को ही दाखिले का अधिकार था। इस प्रथा को स्वयं विद्यासागर ने समाप्त कर सभी जाति के विद्यार्थियों के लिए प्रवेश द्वार खोलकर एक ऐतिहासिक कदम उठाया।

बच्ची को खूंटे से बंधा देख नहीं रोक सके खुद को

एक बार विद्यासागर राह से गुजर रहे थे, तो उन्हें एक घर से बच्चे की कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। ईश्वर चंद्र ने उस घर की खिड़की से झांका तो देखा कि एक 5 वर्ष की बच्ची को बांस की खूंटी में बांधकर रखा गया है। बच्ची पानी पीने के लिए छटपटा रही है, पर घर में मौजूद दो महिलाएं उन्हें ऐसा करने से रोक रहीं हैं। एक छोटी बच्ची पानी के लिए तरस रही है और उसे पानी नहीं दिया जा रहा है, आश्चर्यचकित होकर विद्यासागर ने इसका कारण पूछा। महिलाओं ने कहा कि बच्ची बाल विधवा है और आज एकादशी है।

इसलिए आज उसे निर्जला रहना है। अगर इसे खोल देंगे तो वह पानी पी लेगी, क्योंकि वह नासमझ है। विद्यासागर ने उसी क्षण प्रण किया कि ऐसी प्रथाओं से अगर भारत की महिलाएं मुक्त नहीं होंगी तो भारत को गुलामी की दास्‍ता से मुक्त होने का कोई फायदा नहीं। विभिन्न बाधाओं को पारकर उन्‍होंने 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून लागू कराकर ही दम लिया।

विधवा से कराया बेटे का विवाह

उन्होंने न सिर्फ विधवा विवाह पारित कराया, बल्कि बहु पत्नी प्रथा और बाल विवाह के खिलाफ भी संघर्ष करते रहे। यह सर्वविदित है कि उस समय विधवाओं की स्थिति आज की स्थिति से पृथक थी। विधवाओं को मानसिक व अमानवीय यातनाओं का सामना करना होता था। विधवा विवाह कानून पारित होने के साथ ही विद्यासागर ने अपने एकमात्र पुत्र नारायण दास बंदोपाध्याय का विवाह एक विधवा से ही संपन्न कराया।

यह भी उस समय का एक दृष्टांत ही था। काफी साधारण रहन-सहन, मोटा चावल, मोटा वस्त्र, चादर, पैरों पर साधारण से तार के चप्पल धारण करने वाले विद्यासागर दीनहीन की तरह जीवन बिताते, लेकिन दूसरों के अभाव को दूरकर वह दानवीर राजा की तरह करते थे। अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा वह अभावग्रस्त निर्धन दीन हीन जनमानस पर खर्च करते। बालिकाओं की शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा आदि पर व्यय करते रहे।

स्थापित की थी बालिका स्कूलाें की श्रृंखला

झुमरीतिलैया के युवा साहित्यकार व निखिल भारत साहित्य सम्मेलन से जुड़े संदीप मुखर्जी कहते हैं, ईश्वर चंद्र विद्यासागर की आवाज महिलाओं और लड़कियों के हक के लिए उठती थी। अपने समाज सुधार योगदान में विद्यासागर ने बालिका स्कूलों की एक श्रृंखला स्थापित की थी। उसके साथ ही उन्होंने कोलकाता में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज की स्थापना भी की थी। मुखर्जी कहते हैं कि आज बांग्ला भाषा की पढ़ाई का पहला सोपान ही उन्हीं के द्वारा आरंभ होता है।

उनके द्वारा लिखी वर्ण परिचय प्रथम और द्वितीय भाग की किताब आज भी पाठ्यक्रम का हिस्सा है। सरल तरीके से बांग्ला भाषा सीखने के उद्देश्य से लिखा गया उनका यह किताब बंगला सीखने की पहला सोपान है। इसके अलावा हिंदी से बांग्ला अनुवाद बेताल पंचविंग्शती (बेताल पच्चीसी) संस्कृत से बांग्ला-शकुंतला, सीतार वनवास महाभारत, अंग्रेजी से बंगला अनुवाद- बांग्लार इतिहास, नीतिबोध, जीवन चरित्र, बोधोदय, कथा माला, चरित्रावली, भ्रांति विलास आदि हैं।

अंग्रेजी में पॉलिटिकल सिलेक्शन, सिलेक्शन फ्रॉम इंग्लिश लिटरेचर उनकी खुद की रचना है। ब्रज विलास, रत्न परीक्षा प्रभावती संभाषण, शब्द मंजरी, निष्कृति लाभेर प्रयास, भूगोल खगोल वर्णन, आन्नदा मंगल जैसी कई उपयोगी साहित्यों की रचना विद्यासागर ने की। इसके अलावा व्याकरण कौमुदी, विधवा विवाह का प्रचलन क्यों उचित है व प्रस्ताव दो खंड, एक अत्यंत लघु हुव्यील, ब्रज विलास, रिजु पाठ आदि के रचयिता ईश्वर चंद्र विद्यासागर थे।

झारखंड में लंबे अर्से तक की आदिवासियों की सेवा

बंगाल का शायद ही ऐसा कोई गांव मोहल्ला होगा, जहां विद्यासागर की स्मृति में कोई चौक, पुस्तकालय, विद्यालय या सड़क, सेतु आदि नहीं हो। बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर जिला के घाटाल सब डिविजन अंतर्गत ग्राम वीरसिंग में 26 सितंबर 1820 ई. को जन्मे विद्यासागर की जन्मस्थली को वहां की सरकार ने स्मारक के रूप में तब्दील कर दिया है। यहां दूर-दराज से लोग विद्यासागर के बारे में जानने आते हैं। स्मारक के कर्मी दिलीप बनर्जी कहते हैं, प्रतिवर्ष 4 से 10 जनवरी तक यहां विद्यासागर मेला लगता है।

अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्‍होंने झारखंड के जामताड़ा जिलांतर्गत प्रखंड कर्माटांड़ में करीब 20 वर्ष बिताए। यहां गरीब निर्धन संताली आदिवासी बच्चियों के लिए विद्यालय की स्थापना कर निश्शुल्क शिक्षा व जनमानस के हित के लिए उनके स्वास्थ्य की रक्षा के लिए निश्शुल्क होम्योपैथ चिकित्सा वे स्वयं करते थे। संदीप मुखर्जी ने कहा कि झारखंड स्थित कर्माटांड़ एक महान पुरुष की धरोहर है। इसे विद्यासागर के पुत्र ने कोलकाता के मलिक परिवार के हाथों बेच दी थी।

लेकिन तत्कालीन बिहार बंगाली समिति ने 1974 में सार्वजनिक रूप से चंदा संग्रह कर उस धरोहर को अपने हाथों ले लिया। आज भी वहां एक बालिका विद्यालय संगठन चलाई जा रही है। महान विद्यासागर को माइकल मधुसूदन दत्त ने करुणा सिंधु उपाधि से नवाजा था। वहीं गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने उनके निधन पर अपनी बात रखते हुए कहा कि भगवान ने लाखों बंगालियों का जन्म इस धरा में दिया है, लेकिन सच्चे मायने में एक ही व्यक्ति मनुष्य बन पाए और वह थे, ईश्वर चंद्र विद्यासागर।


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