Stan Swami Inside Story: फादर स्टेन स्वामी पर माओवादियों से फंड लेकर अर्बन नक्सल संचालन का था आरोप
ElgarParishad Stan Swami Jharkhand News एनआइए ने नौ अक्टूबर 2020 को फादर स्टेन स्वामी को रांची स्थित उनके आवास से गिरफ्तार किया था। बहुचर्चित भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में एनआइए ने पूरक आरोप पत्र में खुलासा किया था। अदालत में इसका सबूत सौंपा था।

रांची, राज्य ब्यूरो। मुंबई में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) की हिरासत में इलाजरत भीमा कोरेगांव हिसा के आरोपित बंदी 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी के निधन पर कई संगठन केंद्र सरकार व पुलिस-प्रशासन पर तरह-तरह के आरोप लगा रहे हैं। एनआइए के हाथों गत वर्ष नौ अक्टूबर 2020 को रांची के नामकुम स्थित बगीचा टोली से गिरफ्तार फादर स्टेन स्वामी पर माओवादियों से फंड लेकर अर्बन नक्सल संचालित करने का आरोप था। एनआइए की टीम उन्हें लेकर मुंबई चली गई थी।
उनकी गिरफ्तारी महाराष्ट्र के बहुचर्चित भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रचने में संलिप्तता के आरोप में हुई थी। NIA ने इस मामले में मुंबई स्थित एनआइए की विशेष अदालत में फादर स्टेन स्वामी सहित आठ कार्यकर्ताओं के विरुद्ध पूरक आरोप पत्र दाखिल किया था। अन्य आरोपितों में मुंबई के आनंद तेलतुंबड़े, दक्षिण दिल्ली के गौतम नौलखा, नोयडा उत्तर प्रदेश के हनी बाबू, वाकड़ पुणे महाराष्ट्र के सागर गोरखे, जय जवान नगर पुणे के रमेश गायचर, शिवनेरी कोढावा महाराष्ट्र के ज्योति जगताप व महाराष्ट्र के ही मिलिंद तेलतुंबड़े शामिल थे।
एनआइए ने अपने आरोप पत्र में ही बताया था कि फादर स्टेन स्वामी माओवादियों से फंड लेकर अर्बन नक्सल का संचालन करते हैं। एनआइए के आरोप पत्र के अनुसार स्टेन स्वामी माओवादियों के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन परसेक्यूटेड प्रीजनर्स सोलिडरिटी कमेटी (पीपीएससी) के कन्वेनर थे। एनआइए ने 10 हजार पन्नों का पूरक आरोप पत्र दाखिल कर बताया था कि फादर स्टेन स्वामी के घर से बरामद माओवादी साहित्य व अन्य दस्तावेज उनपर लगे आरोपों को पुष्ट करते थे। वे एनआइए की हिरासत में महज नौ महीने ही रहे और वहीं पर बीमार भी पड़े, जिससे उनकी मौत हो गई।
मूलत: केरल के रहने वाले थे फादर स्टेन स्वामी
फादर स्टेन स्वामी मूल रूप से केरल के रहने वाले थे। वह काफी वर्षों से झारखंड में रहकर आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रहे थे। स्टेन स्वामी ने विस्थापन, भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दों को लेकर संघर्ष भी किया था। उग्रवादी के नाम पर जेल में बंद विचाराधीन लोगों के मानवाधिकार को लेकर भी उन्होंने आवाज उठाई थी। पूर्व में फादर स्टेन स्वामी सिंहभूम में रहते थे। 2004 से नामकुम के एटीसी बगईचा में रह रहे थे।
भड़काऊ भाषण के बाद भड़की थी हिंसा
भीमा कोरेगांव का लिंक ब्रिटिश हुकूमत से है। यह पेशवाओं के नेतृत्व वाले मराठा साम्राज्य और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए युद्ध के लिए जाना जाता है। इस रण में मराठा सेना बुरी तरह से पराजित हुई थी। मराठा सेना का सामना ईस्ट इंडिया कंपनी के महार (दलित) रेजिमेंट से हुआ था। इसलिए इस जीत का श्रेय महार रेजीमेंट के सैनिकों को जाता है। तब से भीमा कोरेगांव को पेशवाओं पर महारों यानी दलितों की जीत का रण माना जाने लगा। इसे एक स्मारक के तौर पर स्थापित किया गया और हर वर्ष दलित समुदाय के लोग यहां एक जनवरी को इस जीत का उत्सव मनाते हैं।
एक जनवरी 2018 से एक दिन पहले 31 दिसंबर 2017 को इस युद्ध की 200वीं सालगिरह थी। 'भीमा कोरेगांव शौर्य दिन प्रेरणा अभियान' के बैनर तले कई संगठनों ने मिलकर एक रैली का आयोजन किया था। इसका नाम 'यलगार परिषद' रखा गया। इस रैली में भड़काऊ भाषण के बाद दूसरा ग्रुप उग्र हो गया था, जिसके बाद हिंसक झड़प हो गई थी। इसमें एक व्यक्ति की मौत हुई थी, जबकि सैकड़ों की संख्या में लोग जख्मी हुए थे।
अनुसंधान में जो निकला था
एनआइए की अनुसंधान में यह स्पष्ट हो गया था कि पूरा बवाल माओवादियों के वरिष्ठ नेताओं के इशारे पर हुआ था। इस मामले में पुणे के विश्राम बाग थाने में प्राथमिकी दर्ज की गई थी। इस केस में पुणे पुलिस ने पूर्व में 15 आरोपितों के खिलाफ दो आरोप पत्र दाखिल किया था। इसमें पहला आरोप पत्र 15 नवंबर 2018 और दूसरा आरोप पत्र 21 फरवरी 2019 को हुआ था। एनआइए ने 24 जनवरी 2020 को इस केस को टेकओवर किया था। एनआइए के अनुसंधान के अनुसार माओवादियों ने एक साजिश के तहत राज्य को भारी मात्रा में तहस-नहस करने, सुरक्षा बलों को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से बड़ी योजना बनाई थी।
जिन आठ आरोपितों पर एनआइए ने आरोप पत्र दाखिल किया था, वे सभी अर्बन नक्सल के रूप में माओवादियों के विचाराधारा से संचालित होते थे। इन लोगों ने समुदाय के जाति, धर्म व संप्रदाय के नाम पर शत्रुता उत्पन्न की। फरार आरोपित मिलिंद तेलतुंबड़े ने अन्य आरोपितों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया था। गिरफ्तार गौतम नौलखा को यह जिम्मेदारी थी कि वह बौद्धिक लोगों को सरकार के खिलाफ एकजुट करे।
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