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    आज ही के द‍िन शुरू हुआ कोल व‍िद्रोह, झारखंड के बहादुर आद‍िवास‍ियों ने अंग्रेजों का छुड़ा द‍िया था छक्‍का

    By Madhukar KumarEdited By:
    Updated: Sat, 11 Dec 2021 05:26 PM (IST)

    Ranchi News अंग्रेजों के झारखंड में पांव पसारने के साथ ही यहां आदिवासियों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी को 1765 में राजस्व का अधिकार मिला। 1771 में उसने झारखंड में प्रवेश किया। 1780 में उसने रामगढ़ में आर्मी कलेक्टरशिप का गठन किया।

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    Ranchi News: 11 दिसंबर वह तारीख थी, जब कोल ने बाहरी लोगों पर हमला किया

    रांची, (संजय कृष्ण) : अंग्रेजों के झारखंड में पांव पसारने के साथ ही यहां आदिवासियों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी को 1765 में राजस्व का अधिकार मिला। 1771 में उसने झारखंड में प्रवेश किया। 1780 में उसने रामगढ़ में आर्मी कलेक्टरशिप का गठन किया। पांच साल के अंदर ही तिलका मांझी ने कंपनी शासन के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया।

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    इसके बाद रांची के बुंडू इलाके में मुंडा विद्रोह कर बैठे। 1798-99 में मानभूम में भूमिज ने विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया। 1819-20 में रांची के तमाड़ क्षेत्र में दुखन मानकी के नेतृत्व में मुंडा फिर उलगुलान कर बैठे। इसके बाद कोल विद्रोह (1831-1832) ने कंपनी की चूल्हें हिला दीं। लगातार विद्रोह के कारण ब्रिटिश सैनिकों का दमन भी उसी स्तर पर बढ़ता जा रहा था।

    1830 के दशक तक औपनिवेशिक दमन के खिलाफ आदिवासी विरोध ने बड़े क्षेत्रों को अपनी चपेट में ले लिया और यह और भी तीव्र हो गया। लार्ड कार्नवालिस ने जमीन की बंदोबस्ती नए सिरे से शुरू की, जिसका विरोध आदिवासियों ने किया। इनके साथ स्थानीय जमींदार भी आदिवासियों के शोषण में पीछे नहीं थे।

    1831 में गोविंदपुर के जमींदार महाराजा कुंवर हरनाथ सिंह ने मनमाने ढंग से बारह गांवों से आदिवासियों, मुख्य रूप से कोल और मुंडाओं को बेदखल कर दिया और कुछ सिखों और मुसलमानों को जमीन दे दी। इसके खिलाफ मुंडा, हो, भुइयां और उरांव एक साथ खड़े हो गए। रांची, हजारीबाग, पलामू और मानभूूम के विद्रोहियों ने सिंद राय और विनराय मानकी के नेतृत्व में भूमि और बंधुआ मजदूरी के खिलाफ उठ खड़े हो गए।

    सवाल सिर्फ जमीन का ही नहीं, संस्कृति का भी था, जिस पर बाहरी तत्व आक्रमण कर रहे थे। आदिवासियों ने खुले तौर पर घोषणा की कि सभी कर उनके लिए अप्रिय थे। उन्होंने अपनी सरकार स्थापित करने के लिए कलकत्ता मार्च करने का फैसला किया और 'हल पर आठ आना कर शुरू करने का फैसला किया।

    11 दिसंबर, 1831 को सोनपुर में मुसीबत तब शुरू हुई जब रूचांग और जमूर के कोल आदिवासियों के एक समूह ने कुमांग गांव से दो सौ मवेशी लूट लिए। इस तरह की छापेमारी और लूटपाट असामान्य नहीं थी। इसके तुरंत बाद सोनपुर परगना के चार अन्य गांवों पर करीब सात सौ लोगों ने 20 दिसंबर 1831 को जमकर लूट किया और गांव जला दिए, इसमें दो सिख भी घायल हो गए।

    इन दोनों हमलों के पीछे कारण यह था कि कुमांग में एक मुस्लिम, मुस्लिम और सोनीपत में एक सिख - हरि सिंह दोनों ने आदिवासी गांवों पर कब्जा कर लिया था। एक पखवाड़े के भीतर कई अन्य गांवों पर भी हमला किया गया, लूटा गया और जला दिया गया। 12 जनवरी, 1832 को करीब चार हजार कोल ने गोविंदपुर पर कब्जा कर लिया और बेलकुदरा के लगभग पूरे परगने को लूट लिया और जला दिया गया।

    विद्रोहियों का मुख्य लक्ष्य गैर-आदिवासी लोगों के घर थे। वे अब तक हमला कर रहे थे। हिंदू, मुस्लिम और अन्य विदेशी। अंधाधुंध तरीके से अपने कृषि या अन्य व्यावसायिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए अपने गांवों में बस गए थे। विद्रोह ने थोड़े समय के भीतर एक बड़े क्षेत्र को घेर लिया और 26 जनवरी तक आदिवासी विद्रोहियों ने पूरे छोटानागपुर के साथ-साथ पूरे छोटानागपुर पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया। हालांकि बाद में इस विद्रोह को दबाने में कंपनी के सैनिकों के पसीने भी छूटे। नए स्तर से इनके अधिकार दिए गए। ब्रिटिश सरकार को इनकी मांगों के आगे झुकना पड़ा।

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