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    कांग्रेस की नीतियों पर सवाल, हार-जीत के पैमाने में ही उलझी पार्टी

    By Pradeep SinghEdited By: Rajat Mourya
    Updated: Wed, 25 Jun 2025 03:42 PM (IST)

    कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की नीतियां असंगत हैं, जहां गुजरात में हार के बाद प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफा दिया, वहीं झारखंड और तेलंगाना में जीत के बावजूद नेताओं को बदला गया। इससे पार्टी के भीतर हार-जीत के पैमाने और जवाबदेही पर सवाल उठ रहे हैं।  

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    प्रदीप सिंह, रांची। कांग्रेस के इंसाफ का तराजू डगमगा रहा है। एक पलड़े में हराने वाले के साथ दूसरे जाने वाले के साथ जिताने वालों को तौला जा रहा है। ताजा मामला गुजरात का है, जहां हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा, जिसके बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शक्ति सिंह गोहिल ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

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    कडी और विसावदर सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा, जहां कडी सीट भाजपा और विसावदर सीट आम आदमी पार्टी (आप) के खाते में गई। गोहिल ने अपने इस्तीफे में कहा कि मैं कांग्रेस का अनुशासित सिपाही हूं और हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना इस्तीफा राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को सौंप रहा हूं।

    उनकी जगह अहमदाबाद के दानिलिमदा से विधायक शैलेश परमार को अंतरिम प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। हालांकि, कांग्रेस की संगठनात्मक नीतियों और नेतृत्व परिवर्तन के तौर-तरीकों पर सवाल उठ रहे हैं। गुजरात में हार के बाद गोहिल का इस्तीफा पार्टी की परंपरा के अनुरूप माना जा रहा है, लेकिन झारखंड में शानदार जीत के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर और प्रदेश कांग्रेस प्रभारी गुलाम अहमद मीर बदल दिए गए।

    उल्लेखनीय है कि 2024 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उम्मीद से काफी अच्छा प्रदर्शन कांग्रेस पार्टी ने किया था। लोकसभा चुनाव में पार्टी ने दो सीटें अपनी झोली में डाली। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 16 सीटों पर कब्जा जमाया। कुछ ऐसा ही तेलंगाना में हुआ, जहां जीत के बाद प्रदेश कांग्रेस प्रभारी माणिक राव ठाकरे बदले गए। इससे कहीं ना कहीं गलत संदेश गया।

    राजेश ठाकुर और गुलाम अहमद मीर ने झारखंड मुक्ति मोर्चा, राजद और वामदलों संग बेहतर तालमेल के साथ निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को विभिन्न बोर्ड-निगमों में सम्मानजनक स्थान दिलाने में कामयाबी पाई। इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार हुआ था, जिसका परिणाम चुनावों में स्पष्ट नजर आया, लेकिन राजेश ठाकुर बदले गए। गुलाम अहमद मीर के स्थान पर के. राजू को प्रभारी बनाया गया।

    तेलंगाना में कांग्रेस की जीत ने पार्टी को दक्षिण भारत में नई ताकत दी थी, लेकिन नेतृत्व परिवर्तन से इस गति को झटका लगने की आशंका है। पार्टी के भीतर यह सवाल उठ रहा है कि हार-जीत का पैमाना आखिरकार क्या है? गुजरात में हार के बाद गोहिल ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्यों में लगातार कमजोर प्रदर्शन के बावजूद वहां के नेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

    इन राज्यों में कांग्रेस की स्थिति लगातार कमजोर हो रही है, फिर भी संगठनात्मक बदलाव की गति धीमी है। गुजरात में ही गोहिल के समर्थकों, पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी और स्वर्गीय अहमद पटेल के अनुयायियों के बीच गुटबाजी खुलकर सामने आ चुकी है।

    जवाबदेही तय नहीं होने की पुरानी परंपरा

    कांग्रेस पार्टी में नेतृत्व का चयन और जवाबदेही तय करने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता और शीर्ष नेतृत्व की जवाबदेही तय नहीं होने की पुरानी परंपरा को भी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है।

    1977 के लोकसभा चुनाव में आपातकाल के बाद हार के बावजूद इंदिरा और संजय गांधी की जवाबदेही तय नहीं की गई थी और आज भी यही स्थिति बनी हुई है। राहुल गांधी की हालिया गुजरात यात्रा में उन्होंने स्थानीय नेताओं पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगाया, लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।

    बिहार में कांग्रेस के वोट शेयर पर केजरीवाल की नजर

    कांग्रेस की ऐसी संगठनात्मक कमजोरियों का फायदा अन्य दल उठा रहे हैं। गुजरात में आप की जीत ने यह संकेत दिया है कि कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक खिसक रहा है।

    आप संयोजक अरविंद केजरीवाल ने खुलकर कहा कि भाजपा को केवल उनकी पार्टी ही टक्कर दे सकती है और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आप में शामिल होने का न्योता दिया। बिहार में भी आप ने कांग्रेस के सात फीसद वोट शेयर पर नजरें गड़ा दी हैं।

    कुल मिलाकर कांग्रेस की नीतियां और नेतृत्व परिवर्तन का तरीका कार्यकर्ताओं और जनता के बीच विश्वास पैदा करने में नाकाम रहा है। गुजरात में हार, झारखंड-तेलंगाना में जीत के बाद भी नेतृत्व परिवर्तन और अन्य राज्यों में निष्क्रियता ने पार्टी की दिशा पर भी सवाल खड़े किए हैं।

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