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    106वां स्थापना दिवस मना रहा CIP रांची, विश्वयुद्ध के दौरान पागलों की बढ़ती संख्या के कारण रखी गई थी आधारशिला

    By Jagran NewsEdited By: Mohit Tripathi
    Updated: Wed, 17 May 2023 05:53 PM (IST)

    रांची का सीआईपी आज 106वां स्थापना दिवस मना रहा है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में बढ़ते पागलों की संख्या को ध्यान में रखकर कांके में पागलखाना खोला गया था। रांची से कांके का तापमान हमेशा कम रहता है। इसी कारण अंग्रेजी सरकार ने यहां संस्थापना की स्थापना की।

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    केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान मना रहा है आज 106 वां स्थापना दिवस।

    संजय कृष्ण, रांची: रांची का केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान (सीआईपी) आज 106 वां स्थापना दिवस मना रहा है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में बढ़ते पागलों की संख्या को ध्यान में रखकर रांची में पागलखाना खोला गया। रांची से कांके का तापमान हमेशा एक-दो डिग्री सेल्सियस कम रहता है। इस कारण अंग्रेजी सरकार ने कांके में ही संस्थापन की स्थापना की।

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    बांबे और अब मुंबई में देश का पहला पागलखाना 1745 में खोला गया। इसके बाद 1784 में कलकत्ता यानी कोलकाता में मेंटल हॉस्पिटल खोले गए थे। आजादी के पहले तक देश में 31 मेंटल हॉस्पिटल खुल गए थे। 17 मई, 1918 को कांके के इस संस्थान का विधिवत उद्घाटन किया गया था।

    इन महान हस्तियों का हो चुका है इलाज

    इस संस्थान में देश की कई महान हस्तियों का भी इलाज किया गया। एक बार हिंदी के प्रसिद्ध कवि निराला को भी यहां भर्ती करने को लेकर चर्चा चली थी लेकिन किसी कारण वे यहां नहीं आ सके। हालांकि उर्दू के महान शायर मजाज को इलाज के लिए केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान में भर्ती किया गया था। उन्हें 11 मई, 1952 में यहां भर्ती कराया गया था। वे यहां नवंबर महीने तक रहे।

    रांची में मजाज की देखभाल सुहैल अजीमाबादी और अपने जमाने के प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण करते थे। रांची में जब भर्ती हुए तब उन्हें तीसरा और अंतिम नरवस ब्रेक डाउन का हमला हुआ था। तीन साल बाद उनका निधन हो गया।

    इसी दौरान मई में ही 1952 के उसी साल में बांग्ला के मशहूर विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम भी इलाज के लिए यहां भर्ती हुए थे। कहते हैं, मजाज और काजी मिलते भी थे। काजी की तो आवाज ही चली गई थी। सरदार अली जाफरी ने 'लखनऊ की पांच रातें' में लिखा गया कि जब मजाज को रांची से लखनऊ ले आया गया तो उसके पास एक बक्सा था। उस छोटे से बक्शे में एक चिट थी। नाम लिखा था-काजी नजरूल इस्लाम।

    यहीं पर महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह भी इलाज के लिए भर्ती हुए थे। हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका डा.ऋता शुक्ल बताती हैं, एकाध बार उनसे वहां जाकर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। तब वे कागज पर कुछ-कुछ लिखा करते थे।

    पहले होता था केवल यूरोपीय मरीजों का इलाज

    दो सौ दस एकड़ में फैले इस संस्थान में स्वतंत्रता से पहले तक केवल यूरोपीय मरीजों का ही इलाज होता था। देश जब स्वतंत्र हो गया तब पाबंदी स्वत: ही खत्म हो गई और भारतीय मरीजों का इलाज शुरू हो गया। अपनी खास चिकित्सा पद्धति के कारण देश में यह अग्रणी तो रहा ही, 1919 में यह एशिया का सबसे बेहतरीन संस्थानों में शुमार हो गया था।

    किस नाम से जाना जाता था संस्थान

    1922 तक इसे यूरोपियन लूनटिक असाइलम और यूरोपियन पागलखाना के नाम से जाना जाता था। इसके बाद इसे यूरोपियन मेंटल हॉस्पिटल के नाम से जाना जाने लगा। इसी साल यह संस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से संबंद्ध हुआ और यहां पढ़ने आने वाले छात्रों को प्रमाण पत्र लंदन से ही मिलता था। देश की आजादी के बाद इसका नाम बदल गया और इंटर प्रोविंसिया मेंटल हॉस्पिटल हो गया और फिर सभी भारतीयों के लिए यह अस्पताल खुल गया

    संस्थान में देश के ऑक्यूपेशनल थेरेपी विभाग की शुरुआत

    इस संस्थान को यह श्रेय जाता है कि यहां देश में सबसे पहले ऑक्यूपेशनल थेरेपी विभाग 1922 में खुला। 1943 में यहां इसीटी, 1947 में साइकोसर्जरी एंड न्यूरोसर्जरी, 1948 में क्लीनिकल साइकोलाजी एंड इलेक्ट्रोनसाइकोग्राफी विभाग की शुरुआत हुई। 1952 में न्यूरोपैथालॉजी भी यहां खुल गया।

    यहां और भी बहुत कुछ है। 1948 में देश में पहली बार यहां सइको सर्जरी हुआ। यह ऐसा अस्पताल है, जहां मरीजों को बंद करके नहीं रखा जाता है। यहां सभी मरीज खुले आसमान के नीचे घूमते रहते हैं और पेंटिंग, योग, बुनाई जैसे रचनात्मक काम भी करते हैं।