टैगोर हिल की खूबसूरत चट्टानों के बीच स्थित वह ब्रम्हमंदिर, जो महान ज्योतीरींद्र की स्मृतियों का है साक्षी
हजारों साल पुरानी चट्टान पर सौ साल पुरानी ज्योतीरींद्र की स्मृतियां मौजूद हैं। यहीं पर उन्होंने तिलक की गीता का अनुवाद किया था। टैगोर बंधुओं ने 14 अप्रैल 1910 को पहाड़ी पर ब्रह्म-मंदिर की स्थापना की थी। सौ साल से भी अधिक ब्रह्म-मंदिर पुराना हो गया है।

जागरण संवाददाता रांची: हजारों साल पुरानी चट्टान पर सौ साल पुरानी ज्योतीरींद्र की स्मृतियां मौजूद हैं। यहीं पर उन्होंने तिलक की गीता का अनुवाद किया था। ज्योतीरींद्र का जन्म चार मई 1849 को कोलकाता में हुआ था। वे 1908 से 1925 तक तक इसी पहाड़ी पर रहें और यहीं पर अंतिम सांस ली। वे गुरुदेव रवींद्रनाथ से 12 साल बड़े थे। गुरुदेव की काव्य प्रतिभा और रागों के निर्माण में उनके बड़े भाई की प्रमुख भूमिका रही।
बिना देखभाल के खराब हो रही ब्रम्ह-मंदिर की हालत
टैगोर बंधुओं ने 14 अप्रैल 1910 को पहाड़ी पर ब्रह्म-मंदिर की स्थापना की थी। इसी दिन रांची और कोलकाता से बहुत से धर्म प्रेमी भी यहां आए थे। सौ साल से भी अधिक ब्रह्म-मंदिर पुराना हो गया है। लंबे समय से इसे राष्ट्रीय धरोहर बनाने की मांग की जाती रही है।
हालांकि टैगोर हिल के शिखर पर स्थापित ब्रह्म-मंदिर की हालत अब बेहद खराब हो गई है। राज्य सरकार केवल बाहरी सुंदरीकरण पर जोर देती रही है। पर्यटन विभाग भी आधा अधूरा काम यहां करता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को लेकर प्राकृतिक सौंदर्य और आदिम संस्कृति संरक्षण संस्थान के संस्थापक अध्यक्ष अजय जैन लगातार पत्र लिखते रहे हैं।
अपने सीमित संसाधनों के बावजूद 2001 से लगातार 'ब्रह्म मंदिर' टैगोर हिल परिसर की ऐतिहासिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक गरिमा संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण मापदण्डों के अनुरूप जीर्णोद्धार के लिए भी प्रयासरत हैं।
'कृष्ण बाबू' की मदद से मिली थी जमीन
ज्योतीरींद्रनाथ की डायरी में दो सितंबर 1908 को लिखित पंक्तियों से पता चलता है कि रांची के किसी 'कृष्ण बाबू' की मदद से उन्हें मोरहाबादी में पहाड़ी पर की यह जमीन मिली थी। 11 दिसंबर की डायरी बताती है कि वे उस दिन रांची आए थे और पहाड़ की चोटी पर निराकार 'ब्रह्म मंदिर' एवं बीच पहाड़ पर शांतिधाम बनाने का निर्णय लेकर कार्य शुरू करवा दिया।
मंदिर और धाम बन जाने के बाद परिसर को जीवंत बनाने के लिए उन्होंने वहां मोर, हिरण और खरगोश भी पालना शुरू किया। रंग-बिरंगी विविध प्रकार के पक्षियों से कुंजित एक चिड़ियाघर भी बनवाया। पहाड़ी पर अनेक प्रकार के फूल पौधे रोपे। 1910 में पहाड़ की चोटी पर निराकार 'ब्रहम-मंदिर' एवं बीच पहाड़ पर शांतिधाम बन जाने के बाद 14 जुलाई 1910 को बड़े धूमधाम से निराकार 'ब्रह्म-मंदिर' के प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम का आयोजन हुआ।
अब अतिक्रमण की चपेट में पहाड़ी
टैगोर हिल अतिक्रमण की चपेट है। हर बार सुंदरीकरण के बाद इसकी चौहदी सिमट जाती है। पर्यटन विभाग भी केवल खानापूर्ति करता है। आसपास अतिक्रमण के कारण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग आगे कदम नहीं बढ़ाता है। जबकि पिछले एक दशक से पत्र व्यवहार किया जा रहा है।
पर्यटन विभाग एक बार फिर 69 लाख और जिला प्रशासन 22 लाख से सीढ़ियों की मरम्मत व खंडहर हो रहे ब्रह्म मंदिर का भी जीर्णोद्धार करने जा रहा है। पर, आज पूरी पहाड़ी को संरक्षित किए जाने की जरूरत है। जिला प्रशासन व नगर निगम की मिलीभगत से यहां बहुमंजिली इमारतें भी खड़ी हो गईं। पहाड़ी सिमट रही है, लेकिन इसकी फिक्र प्रशासन को नहीं है।
स्मारक घोषित करने के कर रहे काम
प्राकृतिक सौंदर्य एवं आदिम संस्कृति संरक्षण संस्थान के संस्थापक के अध्यक्ष अजय जैन कहते हैं, दो दशकों से इसके संरक्षण और राष्ट्रीय स्मारक घोषित किए जाने को लेकर काम कर रहे हैं। यह न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि टैगोर परिवार से जुड़ा होने के कारण यहां देश विदेश से भी लोग जब तब आते हैं। हमें इसके प्रचार प्रसार की जरूरत है। इसका संरक्षण बहुत जरूरी है।
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