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    बिरसा की शहादत उलगुलान का अंत नहीं

    By JagranEdited By:
    Updated: Tue, 09 Jun 2020 01:23 AM (IST)

    वह कौन सी शिक्षा थी? कैसी संस्कृति थी? कैसा जीवन था? जो बिरसा मुंडा जैसा धरती आबा भगवान बिर

    बिरसा की शहादत उलगुलान का अंत नहीं

    वह कौन सी शिक्षा थी? कैसी संस्कृति थी? कैसा जीवन था? जो बिरसा मुंडा जैसा धरती आबा, भगवान बिरसा मुंडा बना। अंग्रेजी राज के अविराम शोषण बेदखली, जमीन की नीलामी, जंगल-जमीन पर टैक्स, खेत-खलिहान, गांव-घर की लूट, थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी, अफसर किरानी की लूट, धर्मान्तरण आदि समस्याओं ने बिरसा मुंडा को उलगुलान करने को मजबूर कर दिया था।

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    बिरसा मुंडा के बहुत पहले अंग्रेजी सत्ता के पांव धरते झारखंड की धरती पर उलगुलान शुरू हो गया था जो आज तक थमा नहीं है। धन-धरती, धर्म और धाक की लूट से आदिवासी सदान परेशान थे। अन्याय सहन नहीं करना झारखंडियों के रक्त में समाया हुआ है। इसलिए नागपुरी में कहावत है सवांग से दुबर आहों तो का मुंहो ले दुबर रहम। इसका अर्थ है तन से दुबला हूं तो क्या मुंह से भी दुबला रहुूगा। अंग्रेजी शासन काल से आदिवासियों का शोषण जारी है और उनका उलगुलान या आंदोलन भी जारी है।

    झारखंड के समाज की अपनी न्याय व्यवस्था, अपने नृत्य संगीत, अपने पर्व, और सब कुछ प्रकृति से जुड़ा हुआ। ऐसे में कोमल ह्दय वाले लोग अंग्रेजों के क्रूर शासन को कैसे झेल सकते थे। इसलिए अंग्रेजी शासन और उसके सहयोगी समूह के बढ़ते न्याय के खिलाफ भगवान बिरसा मुंडा ने अपने पारंपरिक हथियार को उठाया। उन्होंने धर्मपरिवर्तन करने वाले गिरजाघरों, थानों, कचहरी, खजानों को आग के हवाले किया। बिरसा बचपन से बहादूर थे। हम उनकी इस बहादूरी को किताबों में पढ़ाते हैं। मगर ये बहादूरी किताबों के पन्नों पर ही न रहे। हम जिस प्रकृति और संकृति को बचाने के लिए आज लड़ रहे हैं। उसी के लिए भगवान बिरसा भी शहीद हुए थे। भगवान की शहादत के बाद भी झारखंड की जल, जंगल और जमीन संरक्षण की जंग जारी है। उलगुलान आज भी जारी है।

    गिरधारी लाल गौंझू