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    Chhath Puja 2021: बांस से बने सूप व दौरा का धंधा हुआ मंदा, छठ में भी मांग नहीं बढ़ने से पुश्‍तैनी पेशे पर संकट

    By Sujeet Kumar SumanEdited By:
    Updated: Mon, 08 Nov 2021 03:11 PM (IST)

    Chhath Parv Jharkhand News दतिया गांव के महली जाति के लोग पुश्तैनी पेशा छोड़कर मजदूरी कर रहे हैं। पहले व्रत के लिए बांस के बने सूप की खरीदारी जोरों पर होती थी। अब समय के साथ परंपरा में भी बदलाव हो रहा है।

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    Chhath Parv, Jharkhand News अब समय के साथ परंपरा में भी बदलाव हो रहा है।

    खूंटी, [दिलीप कुमार]। लोकआस्था का महापर्व छठ नहाय-खाय के साथ आज शुरू हो गया है। महापर्व छठ 10 नवंबर को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य और 11 नवंबर को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर संपन्न होगा। छठ पर्व पर भगवान भास्कर को अर्पित करने की सामग्री में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है सूप, जिसमें फल-सब्जियां और अनाज रखकर भगवान भास्कर को समर्पित किया जाता है। परंपरा के साथ बांस के बने सूप की मौजूदगी पवित्रता का संदेश देती है।

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    पहले छठ पर्व पर व्रत के लिए बांस के बने सूप की खरीदारी जोरों पर होती थी। अब समय के साथ परंपरा में भी बदलाव हो रहा है। बांस के सूप के बदले अब पीतल के बने सूप लोगों को खूब पसंद आ रहे हैं। इस सूप की डिमांड समय के साथ बढ़ती जा रही है। परंपरा के बीच आस्था पर पीतल के सूप व परात ने बांस के सूप व डलिया को पीछे छोड़ दिया है। इससे बांस के सूप व दौरा बनाने वालों के परंपरागत रोजगार भी प्रभावित हो रहे हैं।

    जिला मुख्यालय खूंटी के निकट स्थित दतिया गांव के रहने वाले एतवा महली बताते हैं कि पहले उन्हें महापर्व छठ का बेसब्री से इंतजार रहता था। महीने भर पहले से उनका परिवार सूप व दौरा बनाने में जुट जाता था। समय के साथ इसमें बदलाव होता गया। पहले जहां उनका परिवार लगभग सौ सूप बेचता था, अब 20 से 25 सूप ही बेच पा रहा है। उनका परिवार अब ऑर्डर लेकर ही सूप बना रहा है। बांस के बने परंपरागत सामान की डिमांड कम होने के कारण महली जाति के लोग अब अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर मजदूरी कर रहे हैं।

    उन्होंने बताया कि दतिया गांव में पहले करीब 15 परिवार बांस का सूप, दौरा आदि बनाते थे। अब केवल दो-तीन परिवार ही इस पुश्तैनी धंधे से जुड़े हैं। एक बांस से सूप व अन्य सामान बनाने में तीन दिन का वक्त लगता है। बांस को फाड़कर उसे बनाए जाने वाले सामग्री के अनुसार पतला काटा जाता है। इसके बाद बुनाई शुरू की जाती है। ऐसे में समय और मेहनत लगता है। उन्होंने बताया कि पहले खूंटी में बना सूप रांची समेत अन्य शहरों में भी जाता था। एतवा महली की पत्नी फूलमनी कहती है कि सरकार भी हमारे पुश्तैनी पेशे को जीवित रखने को लेकर उदासीन है।

    एक बार सरकार की ओर से सभी को प्रशिक्षण दिया गया था। उस वक्त कहा गया था कि सभी को अपने पुश्तैनी पेशे काे जारी रखने के लिए मदद मिलेगी। लेकिन प्रशिक्षण के बाद उन्हें कुछ नहीं दिया गया। उन्होंने बताया कि एक सूप की कीमत 140 से 150 रुपये है। छठ व अन्य पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों के अलावा लोग अब परंपरागत सूप व बांस से बनी अन्य सामग्री का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। आम दिनों में लोग प्लास्टिक व अन्य धातु की बने सामग्रियों का इस्तेमाल अधिक कर रहे हैं।